Monday, November 25, 2024

तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' के बहाने मनुष्यता की स्थापना : विनय विश्वा

 "तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' के बहाने मनुष्यता की स्थापना" 

"एक लंबी कविता है

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव'

जहाँ सभ्यता और संस्कृति

इसकी देह और आत्मा हैं

मित्रता और मुहब्बत

इसकी बुद्धि और प्रज्ञा हैं

अनुभव और अभ्यास

परम अभिव्यक्ति की प्रज्ञात्मा हैं!"-गोलेन्द्र पटेल

कोरोजयी कवियों में गोलेन्द्र पटेल का नाम कनिष्ठिकाधिष्ठित है। गोलेन्द्र पटेल जो वर्तमान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में परास्नातक के छात्र हैं, जिनमें काव्य प्रतिभा कूट- कूट कर भरी है। उनकी चिन्तन की भावधारा भूत,भविष्य को देखती हुई वर्तमान के कलेवर में हिन्दी साहित्य के लिए नए रंग भर रही है। उम्र कम है जरूर लेकिन साहित्य के जैसे पुरनियाँ, पुरोधा लगते हैं। इन्हें वर्तमान में प्रथम सुब्रमण्यम भारती सम्मान और साथ ही रविशंकर उपाध्याय स्मृति सम्मान मिल चुका है और देश के अन्यान्य महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से एक नया हिन्दी लोक गढ़ रहे हैं। इनकी कविता की भाषा शुद्ध गंवई है और उनकी कविताओं में किसान, मजदूर, जंगरैत स्त्रियाँ, खेत,पशु-पक्षी, घास-फूस, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों पर नजर पड़ती है जिस प्रकार नागार्जुन की कविताओं में है। ये अपनी परम्पराओं जड़ता और अपने ही इर्द -गिर्द से अपनी कविता के लिए खनिज लेते हैं । ' आपकी कविता शब्दों की प्रयोगशाला है' औऱ वस्तुतः जहां प्रयोग होगा वहां खनिज प्रचुर मात्रा में होगी ही अगर नहीं होगी तो हवा(ऑक्सीजन, हाइड्रोजन) का मिश्रण कर जिस तरह जलधारा बनाई जाती है वैसे ही कवि गोलेन्द्र की हर एक कविताओं में नित नए शब्दों का प्रयोग हुआ है और यह यूँ ही नहीं है एक विशेष अर्थ भी छोड़ता है जो हिन्दी साहित्य शब्दकोश में बढियाती सार्थक शब्द नजर आती है।

     यहाँ हम कवि गोलेन्द्र की हिन्दी साहित्य में अब तक की सबसे लम्बी कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' की समीक्षात्मक वर्णन करेंगे। उससे पहले हम हिन्दी की परम्पराओं में जाएंगे और बहुत दूर नहीं आधुनिक समय में छायावादी कवियों से शुरू करते हैं । छायावादी कवियों में सुमित्रानंदन पंत से शुरुआत करते हैं, इनकी 'परिवर्तन' कविता जो पल्लव में 1924 ई में छपी है में कवि प्रकृति को मानवीकरण बनाते हुए अपने तत्सम रूपी शब्दों से एक नया सौंदर्य शब्दचित्र गढ़ते हैं जैसे- 

  "आधि,व्याधि,बहु वृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल,

     वह्नि,बाढ़, भू-कम्प,-तुम्हारे विपुल सैन्य दल;

आहे निरंकुश! पदाघात से जिनके विह्वल 

    हिल- हिल उठता है टल-मल

    पद-दलित धरा-तल!

'परिवर्तन' कविता निराशा की केंद्रीय मनोदशा को अनेक मुक्तक छंद में परोसती है। आगे जैसे बढ़ते हैं 'जयशंकर प्रसाद' की लम्बी कविता 'प्रलय की छाया' (1933,लहर से) जिसमें नाटकीयता ,ऐतिहासिक इतिवृत्त पर आधारित है जो आख्यानपरक है,वही 'राम की शक्तिपूजा'(1937,अनामिका से) रामकथा के आख्यान से अपना उपजीव्य ग्रहण करती है।

    शब्दों के समायोजन से भी हिन्दी की उत्तरोत्तर विकास को देखा जा सकता है -

    "लौटे युग-दल। राक्षस -पतदल पृथ्वी टलमल"

                                                        - राम की शक्तिपूजा

यह शब्दांश 'परिवर्तन' में भी आई और उसके बाद की कविता 'राम की शक्तिपूजा ' में भी देखी जा सकती है वैसा ही शब्दों का मेल मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' और गोलेन्द्र पटेल की कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' में देखने को मिलेगी भले ही उसका अर्थ- विन्यास अलग हो पर उपजीव्यता ,परम्परा को जोड़ते हुए एक नया वितान रचना ही एक रचनाकार की सफलतम उपलब्धि है।

इसी लम्बी कविता की श्रृंखला में अज्ञेय की 'असाध्य वीणा'(1961 ई) जो आख्यान के रूप में हैं और प्रयोगवाद के प्रारंभिक दौर और कुछ समय पश्चात नई कविता का दौर आता है तो कविताएं अब यहां पूरी तरह धरातल पर हो जाती है और जनतंत्र की बातें कवि अपनी कविताओं में धड़ल्ले से करते हैं। साठोत्तरी के समय गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता 'अंधेरे में ' एक नए कलेवर में हिन्दी कविता में आती है, जो आत्मचेतस, कविता में कविता ,फ्लैश बैक/फंतासी होते हुए देश, जनतंत्र, मनुष्य की बातें रखते हैं और उससे आगे धूमिल के यहाँ 'पटकथा' में कविता पूरी तरह से खुल जाती है और यह लम्बी कविता की श्रृंखला राजकमल चौधरी(मुक्ति-प्रसंग), रघुवीर सहाय(आत्महत्या के विरुद्ध), लीलाधर जगूड़ी(बलदेव खटिक) से होते हुए गोलेन्द्र पटेल (तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव) तक आती है।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' अब तक की हिन्दी की सबसे लम्बी कविता है जिसकी रचना वर्ष 2020 है, उस वक्त गोलेन्द्र स्नातक के छात्र थे। जो कोरोजीवी की उपज है, जो अपनी परम्पराओं और सभ्यता को जोड़ते हुए चलती है। यह कविता एक यात्रा की तरह है जिसमें कई पात्र और पड़ाव है, जो मनुष्यता का बोध कराती हैं। एक व्यक्ति जो बुजुर्ग है वो अपनी सभ्यता-परम्परा को ढोने वाला है, वहीं आगे चलकर शोधार्थी के आरेखों में भी दिखाई देता है, जो कहीं न कहीं नए को अपनी पुरातनता को याद और उससे जुड़ने की बात करता है । इस कविता को पढ़ने के पश्चात ऐसा लगता है कि यह मुक्तिबोध की कविता'अंधेरे में' की अगली कड़ी है, वहां 'फंतासी' है यहां 'फ्लूअन्सि' है। समाज में जो घटनाएं घटित हो रही है देश, समाज, जनता ,जनतंत्र हर एक पर दृष्टि पड़ी है कवि की।भौतिकता, काम-वासना, प्रेम इत्यादि बिम्बों का वितान देखने को मिलता है । यह कविता संवाद रूप में चलती है और वह भी एक प्रौढ़ पढा-लिखा शोधार्थी के रूप में जो अपनी सभ्यता और संस्कृति की पड़ताल करने निकला है जो भारत देश में अब हम खुद उसे कहीं न कहीं छोड़ रहे हैं इस बाज़ारवाद में । उसी विरासत को सहेजने की एक सफल कोशिश कवि करते हैं इस उजाड़ होती सभ्यता ,संस्कृति, भयावह होता घर-परिवार, खतरनाक होती राजनीतिक मूल्यों को।

कविता की कुछ पंक्तियों को उधृत करते हुए देखेंगे पहली ही पंक्तियों में अपनी सभ्यता और संस्कृति को समन्वित करने की बात होती है, एक शोधार्थी के द्वारा जो नए जमाने का है ,और उस रास्ते में अब इतनी कँटीली झाड़ियां उग आई हैं कि उसे साफ करने में समय लगेगा पर विश्वास है। वह कँटीली झाड़ियां (जो प्रतीक है), असभ्य होता समाज,भाषा, मानवीय मूल्य सभी ओर इंगित करता है ,खासकर भाषा की बड़ी ही दुर्दशा हुई है जिसके कारण कँटीली झाड़ियाँ उग आई हैं जो राह चलते देह को छिल देती है पहली ही पंक्ति में कवि समस्या को खड़ा करते हैं और उसके निदान के लिए जो आत्मा,चेतना ठहर सी गई है उसे एक नई दृष्टिबोध के द्वारा जाग्रत होने की बात करते हैं इससे पता चलता है कि कवि कितना जाग्रत अवस्था में हैं।

"सभ्यता और संस्कृति की समन्वित सड़क पर/ निकल पड़ा हूँ शोध के लिए /झाड़ियों से छिल गई हैं देंह / थक गए हैं पाँव कुछ पहाड़ों को पारकर/सफर में ठहरी है आत्मा/ बोध के लिए"

यहां मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' का एक अंश देखते हैं -

   "वह रहस्यमय व्यक्ति /अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति है/पूर्ण अवस्था वह / निज- सम्भावनाओं,निहित प्रभावों ,प्रतिमाओं की मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव /हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह/आत्मा की प्रतिमा"।

यहाँ ज्ञान का तनाव हृदय में रिस रहा है और आत्मा प्रतिमा में स्थापित हुई है ,जबकि 2020 में गोलेन्द्र की कविता में अब वह बुद्धि को लिए हुए लिखे का शोध करने जा रही है नए दृष्टिकोण से जो परिपक्वता की निशानी होगी,जहां सहेजना ,समेटना,कुछ खुरदुरे को चिकना करना होगा।

मुक्तिबोध के यहाँ बरगद का पेड़ है और गोलेन्द्र के यहाँ भी जो बरगद एक प्रतीक है वट- वृक्ष पूरा राष्ट्र भारत है ,जहां मुक्तिबोध के यहाँ व्यक्ति खड़ा है ,नौजवान है पर यहाँ अब वहीं बरगद (विशाल वृक्ष) है लेकिन वह व्यक्ति अब बूढा हो गया है बैठा है जंग लग गया है उसे एक सहारे की जरूरत है जहाँ गोलेन्द्र की कविता में एक शोधार्थी के रूप में मौजूद है।

  "मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ

   कंधे पर बैठ गया बरगद पात एक

बरगद-आत्मा का पत्र है वह क्या?

      कौन सा इंगित"?

                         - मुक्तिबोध

"बरगद के नीचे बैठा कोई बूढा पूछता है 

      अजनबी कौन है?

 जी, मैं एक शोधार्थी हूँ"।

                            - गोलेन्द्र

'शोधार्थी' जिसके कन्धों पर बड़ी जिम्मेदारी है। वह उस प्रथम प्रेम का साक्ष्य ढूंढ रहा है जो कबीर के ढाई आखर प्रेम में था जो इस आधुनिकता/भौतिकतावादी/बाजारी दुनियां में कहीं खो गई है उसे वह बेचैनी से ढूंढ रहा है क्योंकि नए पीढ़ी पर बड़ी जवाबदेही है इसलिए उसे अब सजग रहना होगा। कवि की जड़े इतनी गहरे होते जा रही हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिना अपने अतीत अपनी जड़ों में गए वर्तमान को सुदृढ़ नहीं कि जा सकती जो दस्तावेज रूप में है उसे उलट-पुलट कर देखनी होगी क्योंकि अतीत की ही प्रतिकृति वर्तमान है।

 "सोच के आकाश में/देख रहा है/अस्थियों के औज़ार/ पत्थरों के बने हुए औज़ारों से मजबूत है।"

कवि की चेतना इस कविता में हर उस पहलू को स्पर्श करते चलती है जो एक स्वस्थ राष्ट्र समाज के निर्माण में महत्ती भूमिका होती है जिसमें (समाज, वातावरण, पर्यावरण, जनतंत्र, हासिए के लोग,नैतिक मूल्य, राष्ट्र) और भविष्य की ओर निगाहें हैं।

एक पंक्ति देख सकते हैं आज की भयावहता को लेकर जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जलवायु परिवर्तन जो पुरी दुनिया में असर डाले हुए हैं अभी ताजा उदाहरण पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भीषण बाढ़ के रूप में देखी जा सकती है और वही ग्लेशियर का पिघलना ,मौसम का बदलना,सूखा पड़ना ये सारी समस्याओं को अपनी कविता में दर्ज करते हैं जो मानव विकास की अंधी दौड़ में इतना सरीक हो गया है कि वह अपने घर को ही भूल गया है जो एक कवि चिंता कर रहा है पर्यावरण को बचाने की कोशिश-

"जंगल के विकास में/इतिहास हँस रहा है/पेड़-पौधे कट रहे हैं/पहाड़-पठार टूट रहे हैं/ नदी-झील सूख रही है/ सड़कें उलट रही है/सागर सहारा का रेगिस्तान हो रहा है"।

कहीं ऐसा प्रकृति का प्रकोपभाजन न हो जाय की दूसरा 'मृतकों का टीला' बन जाए,इस पर गम्भीरता से पूरी मानव जाति को विचार करनी होगी तभी एक स्वस्थ समाज और राष्ट्र का निर्माण हो सकता है, क्योंकि प्रकृति बची रहेगी तो मानव जाति बनी रहेगी।

कवि का चिंतन व्यापकत्व के कैनवास पर अपने शब्दों से एक वृत्तचित्र बनाते नज़र आती है जो सभ्यता और संस्कृति के समन्वित सड़क पर चलते हुए मनुष्य को मनुष्य बनाने की जो पहल है उन सारे दृश्यों को अपनी लेखनी से उकेरने की एक सफल कोशिश की गई है।

"प्रकृति से होते हुए नारी/पुरुष तक,आदिवासी समाज(हासिए के लोग) से होते हुए शिष्ट समाज तक,गुरु से होते हुए शिष्य और सच्चे मित्र तक" आते हैं जो मनुष्य को मनुष्य होने के लिए पर्याप्त है।

कवि संदिग्ध इतिहास में न जाते हुए सीधे वर्तमान में उतरते हैं जो आवश्यक है जिस 'आदिवासी-विमर्श', जल-जंगल-जमीन की बात होती है वहाँ से शुरुआत करते हैं आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी उनकी स्थिति वैसी ही है यह सोचने का विषय है। 

कवि उनके बारे में बताने की सफल कोशिश करते हैं कि आदिवासी समाज कितना सच है जो हम अपने आपको शिष्ट समझते हैं उनकी भाषा रहन-सहन पर हँसते हैं जबकि हम खुद को देवता कहते हैं जो कि सत्य नहीं है हम कितने असभ्य हैं ये हम खुद ही जानते हैं (हमे सुधरना होगा ) यहां एक प्रकार से व्यंग करते हैं-

   "ये वनजाति

(अर्थात आदिवासियों के पूर्वज)

हम देखने में देवता हैं

   ये राक्षस

   लेवता हैं

खैर,ये सच्चे इंसान हैं।"

हमें इन आदिवासी, पिछड़े समाज को लेकर चलने की बात करते हैं उनपे हँसने की बजाय।

वर्तमान समय में पितृसत्तात्मक(पुरूष वर्चस्ववादी) समाज में जिस तरह 'नारी-विमर्श'की बातें हो रही है आए दिन,उस नारी समाज को पकड़ने की कोशिश अपनी कविताओं में करते हैं,आज एक बड़ा प्रश्न-चिन्ह खड़ा होता है कि लड़कियां अपनी संस्कृति को भूलकर सात्विक प्रेम को भुलाकर दैहिक(मांसलवाद) सुख की ओर प्रवृत्त हो रही हैं और ऐसा पुरुष समाज भी कर रहा है जो एक सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं है। उसे स्वस्थ (सुधार की जरूरत)होने की बातें कहते हैं ।

             " माँ से

    क्या आप मुझे जीने देंगी

      अपनी तरह

   क्या मैं स्वतंत्र हूँ?

अपना जीवनसाथी चुनने के लिए

       आपकी तरह।

मुहब्बत के मुहूर्त में मिलना है पिछवाड़े

            प्रियतम से

       आड़े- आड़े......

कवि गोलेन्द्र उस नारी-शक्ति की बात करते हैं जो आए दिन घरों में,तलाक को लेकर कचहरियों में ,पुरुष समाज से प्रताड़ित होते देखी जाती है जो स्वस्थ समाज के लिए जघन्य है, जिसे प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों, कहानियों, में स्थापित करने की कोशिश की औऱ उसी विषय को उत्तर छायावादी रचनाकार राष्ट्रकवि दिनकर अपने निबन्ध 'अर्धनारीश्वर'में उठाते हैं और आधुनिक महिला साहित्यकार भी इस मुद्दे पर जोर दी हैं ,उसी समस्या को एक बार फिर अपनी कविता के माध्यम से 'कोरोजीवी',किसान कवि गोलेन्द्र पटेल उठाते हैं और सभ्य कहने मानने वाले पुरुष पर चोट करते हैं और मनुष्य को मनुष्य होने की बात करते हैं।

"एक असुर का कहना है/ की पत्नी का क़ातिल होना/ असल में आदमी की आदमियत की मृत्यु होना है/कम से कम इस संदर्भ में /हमारी जाति/अभी कलंकित नहीं हुई है/यानी हमें देवत्व का दम्भ त्याग कर /असुरों की अच्छाई अपनाना चाहिए/तभी/हम सही अर्थ में मनुष्य हो पाएंगे।"

मनुष्यता का अब न होना चिंता सता रही है, और मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए समर्पित हो लेकिन कवि को विश्वास है कि जो शेष बचे हैं वही इस धरा-धाम पर मनुष्यता को गढ़ सकते हैं, इसमें कवि का अपना जीवन संघर्ष भी है और सुपथमार्गी मित्र का होना भी जीवन में जरूरी बताते हैं।

 "सपनों का मरना/ जीते जी जिंदा लाश हो जाना है"

कवि की जड़ता की यह पहचान है कि वे अपने लोक/परम्परा को मजबूती से पकड़े हैं वे प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल तक जाते हैं और भक्ति काल में जायसी,तुलसी,कबीर तक जाते हैं-"नाव में नदी को लेकर"।

प्रेम के सहारे पाप-पुण्य तक जाना जो जीवन की अंतिम परिणति है वहाँ तक कवि जाते हैं अपने वेद उपनिषद में जहां से दर्शन लेते हैं -

"वासना के वृक्ष पर बैठे /दो पंक्षी/ देखते हैं कि/वे अपनी बेचैनी को बाँध कर/बहा दिए हैं/नदी में।"

यहाँ प्रतीक के माध्यम से एक दर्शन है , वासना रूपी शरीर जो एक वृक्ष है जिसपर दो पंक्षी बैठा है एक शीर्ष पर और एक नीचे,शीर्ष पर वाला साक्षी है वह सिर्फ देखता है जबकि नीचे वाला वह कर्ता है वह बेचैन है कि क्या कमा लूं, क्या बना लूं, क्या बचा लूं आदि इस भौतिक सुख के लिए उसे तृप्ति नहीं है। 

धर्म का एक नैतिक रूप है जो नीचे की पंक्षी को बदलने की कोशिश करता है, और धर्म का परम रूप आध्यात्मिक होगा।

"धर्म का जो अध्यात्म है वह कहता है कि तुम्हारे भीतर एक साक्षी (देखने वाला)है क्योंकि साक्षी का जन्म नहीं होता,यह तो कर्ता है जो जन्म में भटकता है, क्योंकि मरते वक्त तुम्हारी वासना तृप्त नहीं होती।

'वासना की डोर तुम्हें नये जन्म में ले जाती है उसी नदी की तरह'।

प्रेम की पराकाष्ठा जहां सूफी दर्शन है और साथ ही जो ज्ञान में परिवर्तित होता है जो कबीर के यहाँ दिखता है।

 कवि बार-बार अपनी जड़ों से खनिज लेकर नए प्रयोग नए साहित्य को गढ़ रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी का सबसे भयावह समय कोरोना महामारी का समय लॉकडाउन की स्थिति और नदियों में जो लाशें बह रही थी। जिसकी चीत्कार हर घर में दहाड़ मार रही थी, जो इस भयावह समय की याद दिलाती रहेगी, इसी समय बहुत से मजदूर लौट रहे हैं

यहां चलना क्रिया और लौटना क्रिया की अच्छी पड़ताल की गई हैं, वहाँ लौटना इतिहास में लौटना था जिसका इतिहास मनुष्यता की लहू से लिखा जा रहा है और एक तरफ चलना क्रिया जीवन की सार्थक क्रिया है जब चलेंगे नहीं तो इतिहास कैसे बनाएंगे।

' मनुष्यता की लहू से इतिहास का लिखना'

आज जनतंत्र का राजा जिन्न बन के खड़ा है जो सभी को अपनी माया से जला रहा है।

यहां मनुष्य की उत्कट जिजीविषा ही है जिससे कोरोजीवी सार्थक है । इस महामारी में पूरी कायनात बदल रही है जिसमें भाषा ,शब्द,अर्थ,मुहावरे इत्यादि के बदलते स्वरूप दिखाई दे रहे हैं और नए-नए विमर्श खोले जा रहे हैं। गोलेन्द्र पटेल की कोरोजीवी कविता में नई सम्वेदना,रागानुरागी प्रवृत्ति, जनपक्षधरता,मुक्ति मार्ग,मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा संचार भरते हुए चलती है एक बेचैनी है बदलाव की "कोरोजीवी से कोरोजयिता तक"।

कवि जिस गुरु से सीख रहे हैं उस परम्परा को बरकरार रखना चाहते हैं न की शिक्षक दिवस मना कर भूलने जैसी बात। कवि सृजनात्मक साधना अर्थात कर्म पर ध्यान देने की बात करते हैं क्योंकि सार्थक कर्म ही जीवन की सार्थक उपलब्धि है। श्रद्धा,भक्ति बाद में पहला कर्तव्य कर्मरत/श्रमशील शिष्य होना । अगर शिष्य गुरु मानता है तो उनके सच्चे और अच्छे विचारों को लेकर चलना ही जीवन की सार्थकता है। जैसे स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस उस गुरु शिष्य परम्परा का होना जीवन की सर्वोत्तम शिष्य परम्परा है अपने और राष्ट्र के लिए।

"शिष्य सर्जक की भूमिका में/गुरु की रचना से गुजरते हुए केवल और केवल सृजनात्मक साधना पर ध्यान दे/ न कि साधन और साधक पर/न कि श्रद्धा और भक्ति पर /न कि शिष्य के प्रति उनकी सहजता पर।"

इस संसार का सबसे अनमोल रिश्ता 'मित्रता'है कवि चलते-चलते उस रिश्ते को अपनी कविता में रेखांकित करते हैं। हम मनुष्य अपनी अंतरतम की बातें, यादें एक सच्चे मित्र से ही कहते हैं चाहे वह घोर निराशा वाली बातें हो या खुशी की बातें। मित्रता को 'तिमिर में ज्योति ' की उपमा दे रहे हैं और एकाकार हो जाने की बातें करते हैं।

    "तुम्हारा होना 

    असल में मेरा होना है"

कोई भेद रह ही नहीं जाता है कितना विराट हृदय है कवि का।

'मित्रता और मुहब्बत' इस संसार में मानव के लिए अनमोल ख़जाने की तरह है जिसे मिल जाए तो दुनियां सच में जन्नत हो जाए। उस मित्रता और मुहब्बत में 'विश्वास' रूपी एक डोर है जो पूरी सृष्टि को बाँधे रखती है।

हिंदी साहित्य के इतिहास में लम्बी कविताओं का जब भी जिक्र किया जाएगा तब इक्कीसवीं सदी के कोरोजयी कवि 'गोलेन्द्र पटेल' का नाम जरूर लिया जाएगा। यह कविता कवि के चिंतन की सर्वश्रेष्ठ उपज है जो दूषित होती मनुष्यता,पर्यावरण, परिवेश, लोक,जनतंत्र, समाज आदि मूलभूत चीजों को ध्यान में रखते हुए एक सम्पूर्ण जन्नत भरी लोक रचते हैं जहाँ सिर्फ मनुष्य ही नहीं पर्यावरण, पशु-पक्षी,प्रकृति, रिश्ते हर जगह साम्य, सौम्यता, प्रेम हो। 

जिस प्रकार रैदास 'बेगमपुरा' की कल्पना करते हैं, कबीर तोड़-फोड़ कर सुधार करने की कोशिश करते हैं ,सुदामा पांडेय धूमिल एक नए 'प्रजातंत्र' की बात करते हैं ठीक उसी प्रकार कवि गोलेन्द्र पटेल एक नए समाज, राष्ट्र,लोक की बात करते हैं अपनी कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' में। यह मात्र एक रचना कृतिकार को स्थापित करने में काफी है, जैसे बिहारी 'बिहारी के दोहे' लिखकर अमर हो गए। फिर भी रचनाकार बैठता कहां है। उसकी चिंतन तो नए-नए आयामों को छूते रहती है।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' यह शीर्षक ही अपने आप में कुछ कह जा रही है, जो हमारे भारतीय परम्परा संस्कारों में निहित है जब हम किसी (आत्मीय) को आशीर्वाद देते हैं तो अपनत्व की भाव जन्म लेती है ।

जैसे बड़े बुजुर्ग(पुरखें) आशीर्वाद देते हैं- बनल रहअ।

यह लम्बी कविता आख्यानों,काव्य खण्ड की तरह न होकर वर्तमान परिस्थितियों घटनाओं को लेकर रूपक की तरह चलती है कविता में कविता गढ़ते हुए जिसमें भावों की अभिव्यक्ति, अभिव्यंजना है जहाँ भाषा ,शब्द,अर्थ सबका रूप बदलता हुआ जान पड़ता है। कविता नदी की धारा की तरह प्रवाहित होती चली जा रही है। कहीं ठहराव नहीं है। जिसका उत्स सभ्यता, संस्कृति, परम्पराओं में निहित है, जिसका उत्स और उत्कर्ष यति में नहीं, गति में है। यह कविता हमारे समय का प्रत्याख्यान और हमारी चेतना का मानचित्र बन चुकी है । दूसरे शब्दों में, "गोलेन्द्र पटेल की काव्यभाषा उनकी विचार-संवेदना की सच्ची अनुगामिनी है। वे भाषा का नया मुहावरा गढ़ने वाले कवि हैं। कोरोजीवी कविता में उनकी संवेना और सोच जनपक्षधरता और उसकी मुक्ति की आकांक्षा है। उनकी कविताओं से गुज़रने के बाद हम अपने मन-मस्तिष्क में नवीन ऊर्जा को महसूस करते हैं। अतः 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' गोलेन्द्र पटेल की कविता हमारे समय के स्वभाव और स्वरूप का केंद्रीय रूपक या प्रतिनिधि पाठ है।"

सभ्यता और संस्कृति का समन्वय अपनी जड़ों की ओर जाना वहां से खनिज लेते हुए प्रकृति का सानिध्य प्राप्त करना जहां लोग प्रकृति से कटते जा रहे हैं। इस वर्तमान समय में आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी आदिवासी ,हासिए के समाज पर ध्यान न देना उन्हें असभ्य समझना ,जिसको लेकर कवि सभ्य औऱ असभ्य(आदिवासी) समाज को स्थापित करना चाहते हैं। इस संसार का सबसे अनमोल व्यक्ति(नर-नारी) में मेल कराना जो 'अर्धनारीश्वर' बन जाए इसकी स्थापना, गुरु-शिष्य की स्थापना(मूल रूप से कर्तव्य) और सच्ची मित्रता स्थापित करना यह कवि का अपना कैनवास है ।

कवि की भाषा सहज और सरल है अपने गंवई (देशज) परम्पराओं से ली हुई शब्दों को स्थापित करने की कोशिश है, अनुप्रास अलंकार ,बदलता मुहावरा, और नए शब्दों का निर्माण बखूबी देखी जा सकती है। जैसे- लोचन की लय में लेह,आह रे माई,प्रेम की 

पईना, घास,आड़े-आड़े,नेह, मेह ,भँवर के भाव में व ताव में, रेह,गेह,बेना, सेना,सरसराहट, हम देखने में देवता हैं ये राक्षस लेवता हैं, नाउन, मेहरारू, इतवार,लीख, बलम,होलापात,गठरियाँ, चपलवा,खटिया,बाधी,पाटी, भरकुंडी, ढीठ,छाँह,रहिया,हमार हिरवा,जैसे अनगिनत शब्दों का प्रयोग हुआ है यह कवि का खनिज है जहाँ से लेते हैं।

यहां कवि, रैदास की तरह सहज और सरल भाषाई अर्थों में अपनी बातें कहते हैं कबीर व धूमिल की तरह प्रतिरोधी नहीं।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' हिंदी साहित्य की एक मुकम्मल लम्बी कविता है जो सही अर्थ देती है जिसमें मानवीय मूल्यों की सजग अभिव्यक्ति हुई है, मनुष्य होने की सर्वश्रेष्ठ रचना है।

                   © विनय विश्वा

    युवा कवि, लेखक, शोधार्थी सह शिक्षक

         07/09/22

पूर्व छात्र- काशी हिंदू विश्वविद्यालय (हिंदी विभाग)

शोध छात्र- जेपी यूनिवर्सिटी 

संपर्क सूत्र :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल (युवा कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


Monday, October 16, 2023

युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ (Yuva Kavi Golendra Patel Kee Kavitaen)

 युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की 13 कविताएँ :-

1).


*हम माटी के प्रेमी किसान हैं*

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गाय, बैल, ट्रैक्टर, थ्रैशर, खेत व खलिहान हमारी पहचान हैं

हमारे बेटे सरहद के जवान हैं

हमारी हथेलियों में कुदाल, खुरपी, फ़रसा व हँसिया के निशान हैं

हम माटी के प्रेमी किसान हैं।


हम धूल, धुआँ, कुआँ व जुआ के गान हैं

हमारे गीतों में गोभी, गन्ना, गेहूँ व धान हैं

हम इनसान के स्वाभिमान हैं

हम माटी के प्रेमी किसान हैं।


तुम्हारी दृष्टि में देव, हम क्यों प्रकृति के क़रीब हैं?

हम क्यों भूखे नंगे ग़रीब हैं?

हम क्यों अनपढ़, गँवार व नादान हैं?

हम माटी के प्रेमी किसान हैं।


हममें क्या कमी है? हमारी भाषा में नमी है

हमारी संस्कृति श्रम की कोख से जन्मी है

हम देश की आन बान शान हैं

हम माटी के प्रेमी किसान हैं।



2).




*मेरा दुःख मेरा दीपक है*

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जब मैं अपने माँ के गर्भ में था

वह ढोती रही ईंट

जब मेरा जन्म हुआ वह ढोती रही ईंट

जब मैं दुधमुंहाँ शिशु था

वह अपनी पीठ पर मुझे 

और सर पर ढोती रही ईंट


मेरी माँ, माईपन का महाकाव्य है

यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उसका बेटा हूँ

मेरी माँ लोहे की बनी है

मेरी माँ की देह से श्रम-संस्कृति के दोहे फूटे हैं

उसके पसीने और आँसू के संगम पर

ईंट-गारे, गिट्टी-पत्थर,

कोयला-सोयला, लोहा-लक्कड़ व लकड़ी-सकड़ी के स्वर सुनाई देते हैं


मेरी माँ के पैरों की फटी बिवाइयों से पीब नहीं,

प्रगीत बहता है

मेरी माँ की खुरदरी हथेलियों का हुनर गोइंठा-गोहरा

की छपासी कला में देखा जा सकता है


मेरी माँ धूल, धुएँ और कुएँ की पहचान है

मेरी माँ धरती, नदी और गाय का गान है

मेरी माँ भूख की भाषा है

मेरी माँ मनुष्यता की मिट्टी की परिभाषा है

मेरी माँ मेरी उम्मीद है


चढ़ते हुए घाम में चाम जल रहा है उसका

वह ईंट ढो रही है

उसके विरुद्ध झुलसाती हुई लू ही नहीं, 

अग्नि की आँधी चल रही है

वह सुबह से शाम अविराम काम कर रही है

उसे अभी खेतों की निराई-गुड़ाई करनी है

वह थक कर चूर है

लेकिन उसे आधी रात तक चौका-बरतन करना है

मेरे लिए रोटी पोनी है, चिरई बनानी है

क्योंकि वह मजदूर है!


अब माँ की जगह मैं ढोता हूँ ईंट

कभी भट्ठे पर, कभी मंडी का मजदूर बन कर शहर में

और कभी-कभी पहाड़ों में पत्थर भी तोड़ता हूँ

काटता हूँ बोल्डर बड़ा-बड़ा

मैं गुरु हथौड़ा ही नहीं

घन चलाता हूँ खड़ा-खड़ा


टाँकी और चकधारे के बीच मुझे मेरा समय नज़र आता है

मैं करनी, बसूली, साहुल, सूता, रूसा व पाटा से संवाद करता हूँ

और अँधेरे में ख़ुद बरता हूँ दुख


मेरा दुख मेरा दीपक है!


मैं मजदूर का बच्चा हूँ

मजदूर के बच्चे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं

वे बूढ़ों की तरह सोचते हैं

उनकी बातें 

भयानक कष्ट की कोख से जन्म लेती हैं

क्योंकि उनकी माँएँ 

उनके मालिक की किताबों के पन्नों पर 

उनका मल फेंकती हैं 

और उनके बीच की कविता सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है।


मेरी माँ अब वही कविता बन गयी है

जो दुनिया की ज़रूरत है!



3).


खर जिउतिया पूजन

_____________________________________________


एक माँ की स्मृति जीवित होती है

जीवित्पुत्रिका व्रत से

अनंत दुआएँ द्वार पर आती हैं

सभी संतानें साँपों से बच जाती हैं मुश्किल सफ़र में

विषम समय का विख सोख लेता है सूर्य

गाँव दर गाँव गूँजता है तूर्य


जगत पर टिमटिमाते जुगनुओं की रोशनी में

अढ़ाई अक्षरों के प्रेमपत्र को पढ़ती हैं किशोरियाँ

किलकारियों के कचकचाहटी स्वर में गाती हैं कजरियाँ


“सर्वे भवंतु सुखिनः’ सिद्धांत है हवा के होंठों पर

 ऐ सखी! सृष्टि में फूल मरता है

 पर उसका सौरभ नहीं

 कलियाँ कंठों-कंठ कानों-कान सुनती रहती हैं

 भ्रमरियों की गुनगुनाहट

और आहत तन-मन की आहट

मसलन ‘जीवन का राग नया अनुराग नया”


बाहर धूल भीतर रेत है

अंधेरी आँधियों में मणियों का मौन चमकना

साँप-साँपिन के संयोग का संकेत है

ओसों से बुझ रही है घास की प्यास

साथ छोड़ रहा है श्वास


पर, पेड़ को पता है

पत्तियों के पेट में जाग रही है भूख

कहीं नहीं है सुख

सूख रहा है ऊख


आश्विन-कृष्णा अष्टमी को

जीमूतवाहन जन्नत का वास छोड़कर पृथ्वी पर आते हैं

गरुड़ गगनगंगा में मलयावती के साथ नौका विहार करते हैं

जहाँ ढेर सारे किसान बादलराग गाते हैं


नयननीर की नदियों में शांति है

पर आँखों में क्रांति है

लालिमा बढ़ रही है

टूट रहा है विश्वास

रोष के रस से लबालब भरा है गिलास


गर्भवती अनुभूतियाँ जन्म दे रही हैं स्मृतियों को

जिन्हें जीउतिया माई अमरता का आशीर्वाद दे रही हैं 

स्मृतियों के जीवित रहने से मनुष्यता जीवित रहती है


खैर, यह कोरोना के विरुद्ध छत्तिस घंटों का महासंकल्प है 


इस वायरस-वर्ष ने प्रेम में नजदीकियों को नहीं,

दूरियों के तनाव को स्वीकार किया है

स्पर्श से दोस्ती में दरार पड़ रही है

कच्ची उम्र की बुभुक्षा लड़ रही है


पर्व को परवाह नहीं किसी के जीवन से

मृत्यु नहीं रुकती है किसी के रोकने से

नहीं रुकती हैं

कभी-कभी ख़ुद से ख़ुद की दूरियाँ बढ़ने से

दूरियों के बढ़ने से मन खिन्न है


गँवई शब्द मृत्यु की गंध को सूँघ रहे हैं

मरने से पहले एकत्र होकर

एक ही अगरबत्ती के धुएं को फेफड़े तक पहुँचा रहे हैं

डर के विरुद्ध


व्रतधारिन बूढ़ी औरतें  

नयी नवेली बहुओं को उपदेश दे रही हैं

कि उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद है उपवास


चील्होर था या उल्लू फुसफुसा रही है भीड़

परात का प्रसाद लौट रहा है

चूल्हे के पास


बच्चे हैं

कि गोझिया आज ही खाना चाहते हैं

खर व्रतधारिन समझा रही हैं

जिउतिया माई रात भर खईहन

हम सब सवेरे

(प्रसाद बसियाने पर शीघ्र शक्ति प्रदान करता है, वत्स!) 


बच्चे कह रहे हैं माई हमार हिस्सा हमें दे दे

नाहीं त रतिया में जिउतिया माई कुल खा जईहन

आज शायद ही छोटे बच्चे सो पाएंगे ठीक से

व्रत की बात हट रही है लीक से


यह लोकपर्व मातृशक्ति की तपस्या है!!



4).


*दूब*

______________________________________


ओ ओस के आँसू!

विपरीत परिस्थिति में

मैं उगी

यों— चेहरे पर उनके लिए ऊब हूँ

मैं हरी दूब हूँ!!



5).



*तीर्थायन*

______________________________________


सीर गोवर्धन से साबरमती का तीर्थायन

करते हुए

हमने जाना—“गाँधी के राम कौन हैं?

उन्हें चरखा किस संत ने दिया?

उन्होंने बुद्ध को कितना जिया?”



6).


*हिंदी*

______________________________________


जब कोई बच्चा रोता है

उसकी माँ

उसे मना लेती है ;


हिन्दी हमारी माँ है

उसकी वर्णमाला

‘अ’ से ‘अनपढ़’ को अंत में

‘ज्ञ’ से ‘ज्ञानी’ बना देती है।


7).



*संतप्त क्रियाएँ*

______________________________________


एक आत्मा चीख रही है

दूसरी चिल्ला रही है

तीसरी चोकर रही है

चौथी अरई दे रही है

पाचवीं ओरिया रही है

छठवीं गरिया रही है

सातवीं बर्रा रही है

इन संतप्त आत्माओं में किस की क्रिया सार्थक है?



8).


*बहन का मतलब*

______________________________________


अंग्रेजी में ‘बहन’ को ‘सिस्टर’ कहते हैं

जिसका मशहूर मतलब है

‘स्वीट’, ‘इनोसेंट’, ‘सुपर’, ‘टैलेंटेड’, ‘एलिगेंट’ और ‘रिमार्केबल’


हिन्दी में बहन का पहला मतलब है

‘ब’ से ‘बज़्म’ है बहन 

‘ह’ से ‘हथौटी’ है बहन 

‘न’ से ‘नज़्म’ है बहन


बहन का दूसरा मतलब है

‘ब’ से ‘बल’ है बहन (भाई का)

‘ह’ से ‘हल’ है बहन (हर सवाल का)

‘न’ से ‘नल’ है बहन (पानी का)


बहन का तीसरा मतलब है

‘ब’ से बाप के लिए बधाई बन जाना 

‘ह’ से हक के लिए हथियार उठाना

‘न’ से नीच के लिए नाख़ून बढ़ाना


बहन! बहन का चौथा मतलब क्या है?

“दूसरे की बहन को अपनी बहन समझना!”

■ 


9).


*पहली कक्षा* (बाल कविता)

______________________________________


हम हर दिन पढ़ने जाते हैं 

हम सब यह गाते हैं

कलम के आगे झुकता है भाला

सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला


हम पहली कक्षा के विद्यार्थी हैं

हमें याद करनी है गिनती

हमें याद करनी है वर्णमाला

सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला


बोलो बच्चों एक साथ

जय जवान जय किसान जय विज्ञान


हम पहली कक्षा के विद्यार्थी हैं

हमें याद करना है राष्ट्रगान

हमें खोलना है दिमाग़ का ताला

सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला


हम पहली कक्षा के विद्यार्थी हैं

हमें याद करनी हैं किताब की बातें

हमें बनानी है शब्दों की माला

सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला


बोलो बच्चों एक साथ

जय हिन्द जय भारत!


10).


*हरियाली विहीन देश* (बाल कविता)

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वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो!

जहाँ की सरकार शेरनी है और न्याय शेर

वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो!

जहाँ अधिकार माँगने वाली जनता विषहीन बिरनी है

भेंड़ है, बकरी है, गाय है, भैंस है और हिरनी है

वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो!

जहाँ नदी सड़क है और पहाड़ पोखरा

वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो!

जहाँ हर घर प्लास्टिक के पेड़ पाये जाते हैं

वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो!

जहाँ एक पौधा रोपते हुए कई बुद्धिजीवी तसवीर खींचाते है

वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो!

जहाँ पंख के लिए पानी नहीं है और न ही चौपायों के लिए चारा

वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो!

जहाँ हर पाँच साल पर गूँजता है मानवता का नारा।।



11).


*गुब्बारे* (बाल कविता)

______________________________________


मैं बचपन से बेचता हूँ

प्यारे-प्यारे गुब्बारे

मैं बेचता हूँ आसमान के तारे

मैं बेचता हूँ चुनाव के नारे

मैं बेचता हूँ बच्चों का खेलौना

मैं बेचता हूँ तरह-तरह का खेलौना

मैं बेचता हूँ खेलौना

ले लो ना, खेलौना ले लो ना।


मैंने यह कसम है खाई

ये गुब्बारे किस्मत के मारे बच्चे सारे

निःशुल्क ले सकते हैं भाई

आओ! आओ!

खेलौना देखो!

जो मनभाये ले लो

पढ़ो-लिखो और खेलो!


गुब्बारे रंग-बिरंगे प्यारे-प्यारे

इतने सारे मैं लेकर आया हूँ 

गुब्बारे ले लो! गुब्बारे ले लो!...



12).


*खिलौने* (बाल कविता)

______________________________________


अच्छे खिलौने

बच्चों के व्यक्तित्व को निखारते हैं


खिलौने, सीखने की प्रक्रिया में सहायक होते हैं

अक्सर मेले में अमीर माँ-बाप कहते हैं

“अच्छे बच्चे खिलौनें लेने के लिए नहीं रोते हैं!”


और गरीब माँ-बाप कहते हैं

“बेटा! चेलो आगे, इससे बढ़िया खिलौना दिलाऊँगा!”

जब कि सच यह है 

कि गरीबी बच्चे को हामिद बना देती है

हाँ, वही हामिद

जिसका चिमटा व्यवस्था को चुनौती देता है

जो कथा-साहित्य में अमर है

सुनो! बाँसुरी का कितना सुंदर स्वर है! 


देखो! ये चूल्हे पर चढ़े हुए कुकर सीटी मारते हैं

अच्छे खिलौने

बच्चों के व्यक्तित्व को निखारते हैं!



13).


*हमें चाहिए* (बाल कविता)

______________________________________


हम मनुष्य हैं

हम देश हैं

हमें चाहिए

‘अ’ से अधिकार 

हमें चाहिए

‘क’ से किसान 

हमें चाहिए

‘ज’ से जवान

हमें चाहिए

‘व’ से विज्ञान

हमें चाहिए

‘स’ से संविधान

हमें चाहिए

‘ह’ से हक

हमें चाहिए

‘ज्ञ’ से ज्ञान

हम मनुष्य हैं

हम देश हैं!

नाम : गोलेन्द्र पटेल (लोकधर्मी कवि व लेखक)

संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

Monday, October 9, 2023

धूमिल की कविताओं में जनपक्षधरता और भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप

धूमिल की कविताओं में जनपक्षधरता और भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप

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1). सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' का पुनर्मूल्यांकन

2). धूमिल : एक खोज

3). काव्य सिद्धांत और धूमिल का काव्य

4). जनपदीय कवि धूमिल की लोक संवेदना एवं मानवीय मूल्य

5). धूमिल के काव्य में मानव-मूल्य

6). धूमिल के गीतिकाव्य/गीत : आशा एवं संघर्ष का समवेत स्वर

7). धूमिल के साहित्य में लोकतंत्र का स्वरूप

8). धूमिल के साहित्य में उनकी सामाजिक पक्षधरता

9). धूमिल की काव्य-संवेदना

10). धूमिल की नज़र में कविता

11). धूमिल की रचना में दलित-जीवन और मानवाधिकार

12). धूमिल के साहित्य में भदेस शब्दावली

13). धूमिल की स्त्री-दृष्टि

14). विचारकों की नज़र में धूमिल

15). धूमिल की गद्य में सामाजिक परिवेश

16). धूमिल की रचनाओं में विन्यस्त समकालीन यथार्थ

17). धूमिल का रचना संसार : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

19). धूमिल के काव्य का शैली वैज्ञानिक अध्ययन

20). धूमिल का लेखन : विस्तार और वैविध्य

21). धूमिल की रचनाओं में युगबोध

22). धूमिल की सौंदर्य-दृष्टि

23). धूमिल की कविताओं में प्रतिरोध का स्वरूप

24). धूमिल की कविता में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना

25). धूमिल की कविता में लोकतंत्र की आलोचना

26). धूमिल : जनवादी चेतना

27). धूमिल की कविता में युगचेतना

28). धूमिल के गद्य साहित्य में सामाजिक चेतना और भाषायी सौंदर्य का समवेत

29). धूमिल का रचना संसार : युगबोध और मानवीय दृष्टि

30). धूमिल के गद्य साहित्य का पाठ विश्लेषण

31). धूमिल का गद्य साहित्य

32). धूमिल के गद्य साहित्य की वस्तु और शिल्प

33). धूमिल काव्य की भाषा एवं शिल्प

34). धूमिल का गद्य साहित्य और साठोत्तरी समय

35). सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' और उनका युगीन परिवेश

36). धूमिल के रचना संसार में विविध स्वर

37). धूमिल : विद्रोही पक्ष, प्रसांगिकता, भाषा, भाव-चेतना

38). धूमिल की रचनाओं में ग्रामीण संस्कृति के विविध आयाम

39). लोकधर्मी व जनकवि धूमिल का रचना संसार

40). कविता के कैनवस पर धूमिल का गद्य


लेखक : गोलेन्द्र पटेल (कवि व शिक्षार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।)
संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
मो. नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com


【नोट: धूमिल से संबंधित कुछ सवाल और कुछ अन्य शीर्षक भीतर उथल-पुथल मचाये हैं. यदि आप धूमिल पर रिसर्च कर रहे हैं, तो आप अपने शोध का शीर्षक कॉमेंट बॉक्स में बता सकते हैं।】


 


Saturday, June 17, 2023

आदिकाल का नामकरण एवं प्रस्तोता

 

आदिकाल का नामकरण

प्रस्तोता

चारण काल

जॉर्ज ग्रियर्सन

प्रारंभिक काल

मिश्रबंधु

प्रारंभिक काल

गणपतिचंद्र गुप्त

बीजवपन काल

महावीरप्रसाद द्विवेदी

वीरगाथाकाल

रामचंद्र शुक्ल

सिद्ध-सामंत काल

राहुल सांकृत्यायन

वीरकाल

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

संधिकाल एवं चारण काल

रामकुमार वर्मा

आदिकाल

हजारीप्रसाद द्विवेदी

जयकाल

रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’

आधार काल

सुमन राजे

अपभ्रंश काल

धीरेंद्र वर्मा

उद्भव काल

वासुदेव सिंह

अंकुरण काल (जरमिनेशन टाइम)

गोलेन्द्र पटेल

शम्भुनाथ सिंह

उद्भवकाल, प्राचीन काल

रामखेलावन पाण्डेय

संक्रमणकाल

चंद्रधर शर्मा गुलेरी & राहुल सांकृत्यायन

पुरानी हिंदी का काल

कमल कुलश्रेष्ठ

अंधकारकाल

मोहन अवस्थी

आधारकाल

स्नातक सत्यकाम वर्मा

लोकोन्मुखी साहित्य का युग

विजयेंद्र स्नातक

वीर प्रशस्ति युग

रामप्रसाद मिश्र

संक्रांति काल

बच्चन सिंह

अपभ्रंशकाल : जाति साहित्य का उद्भव

श्यामसुंदर दास

वीरकाल (अपभ्रंश का)

 




Thursday, February 9, 2023

प्रेरणा-अंशु, 36-वर्ष, अंक-10 , फरवरी-2023 : पाठकीय टिप्पणी


प्रिय संपादक महोदय,

दिनेशपुर, उत्तराखंड, भारत।


नमस्कार!

जैसा कि हम सब जानते हैं कि लघु पत्रिकाएँ हमें जगाती हैं, उकसाती हैं और रचनात्मक दुनिया को भीतर जोड़े रखती हैं। वे हमारी सृजनात्मकता को सींचती हैं। एक अच्छी साहित्यिक पत्रिका हमारी मार्गदर्शिका होती है।


36 वर्षों से साहित्य की दुनिया में "प्रेरणा-अंशु" का आगाज जितना शानदार रहा उतनी ही शानदार इसकी प्रस्तुतियाँ भी हैं। 'फरवरी-2023' अंक अभी हाल ही में प्राप्त हुआ है। आवरण देखकर मन गदगद है और आत्मा आह्लादित। बहुत ही सुंदर व सुव्यवस्थित अंक है। सराहनीय आवरण पृष्ठ है। पूरी पत्रिका में साहित्य और कला का सुंदर समन्वय देखते ही बनता है। इसकी संपादकीय टिप्पणी उत्तम और उच्च कोटि की है। इसके लिए कार्यकारी संपादक व प्रिय साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक श्री पलाश विश्वास जी, संयुक्त संपादक श्री रूपेश कुमार सिंह जी, तकनीकी सहयोगकर्त्ता श्री अरुण मिश्र जी एवं संपादक मंडल के सभी सदस्य बधाई के पात्र हैं। इस अंक का अनुक्रम अद्भुत है, जो एक पाठक को एक ही बैठक में पढ़ने के लिए मजबूर कर दिया। खैर, मैं तो इसे पीडीएफ फ़ाइल से तीन बार में पढ़ा। पर मेरे दोस्तों ने हार्डकॉपी में पत्रिका को एक ही बार में पढ़ डाला है। पत्रिका सदा की भाँति तथ्यपूर्ण, ज्ञानवर्धक एवं शोधपरक जानकारी से सराबोर है। एक उम्मीद भरे हुए पाठक को इस सोपान से बढ़कर और क्या चाहिए।


मैं 'प्रेरणा-अंशु' का एक बहुत पुराना नियमित पाठक हूँ। मुझे यह अपने प्रत्येक मोर्चे पर एक बेहद समर्पित व सक्रिय पत्रिका लगती है। क्योंकि इसमें मुझे लगातार उत्कृष्ट एवं विविधता भरी रचनाएँ अपने नये अस्वाद व स्वाद के साथ पढ़ने को मिल रही हैं। प्रिय पथप्रदर्शक पलाश जी के संपादन में यह नित्य नवीन दिशा की ओर आगे बढ़ रही है। कहते हैं कि जब काबिल लोग ऐसी जिम्मेदारी लेते हैं, तो किस तरह से कला, विचारों, ज्ञान, संतुलन, विविधता को ऊँचाई प्रदान करते हैं, इसी का एक उदाहरण है प्रिय पलाश  जी का यह प्रयास। उनके भीतर छिपे कुशल संपादक की प्रतिभा अंक में यत्र, तत्र व सर्वत्र देखने को मिलती है। आपकी पत्रिका सम्पूर्ण हिंदी साहित्य विधा को समेटे हुए होती है, यह पाठकों के लिए सुखद है।


इस अंक में मेरी (गोलेन्द्र पटेल) रचनाओं को जगह देने के लिए आपका हार्दिक आभार और अनंत शुभकामनायें। पत्रिका के अन्य बिन्दुओं पर बात करने से पहले एक सुझाव है कि रचनाओं के शीर्षक और उपशीर्षक (टैग लाइन) पर विशेष ध्यान दें तो बेहतर रहेगा और आप आलोचनापरक लेखों पर भी कुछ ध्यान दें। जैसे इस अंक में मेरी ही रचनाओं के शीर्षक गायब हैं। इस अंक में मुझे कई नये नाम मिले हैं, जिनकी रचनाएँ पढ़ने के बाद उनसे बातें करने का मन है लेकिन इसमें उनके संपर्क सूत्र नहीं दिये हैं। कम से कम रचनाकारों का मोबाइल नंबर रहता तो अच्छा होता, यदि आप एक-दो पंक्तियों में रचनाकारों का संक्षिप्त परिचय देंगे, तो नये पाठकों को पत्रिका और प्रभावित करेगी।  


यह अंक साहित्य और सामाजिक सरोकारों से लवरेज है, जो एक बहुआयामी पत्रिका की पहचान दिलाती है। स्तरीय रचनाओं का होना आपकी संपादकीय परिपक्वता को दर्शाती है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि पत्रिका का भविष्य संपादक की दूरदर्शिता पर निर्भर करता है। आपकी संपादकीय टिप्पणी सच में ही आत्मीयता लिए हुए होती है। ख़ास कर "युवाओं के लिए अग्निपथ" या "अपनी बात" जैसा स्तंभ। आपका अथक प्रयास सराहनीय है। आपकी पत्रिका इसी तरह आधुनिक चेतना एवं ज्ञान-विज्ञान तथा साहित्य व संस्कृति की उन्नायिका रहे, यह आपकी जिम्मेदारी भी है।


निःसंदेह यह अंक पठनीय और संग्रहणीय है। पलाश जी का 'हिमालय को जोशीमठ के आईने में देंखें' लेख एवं अनिता रश्मि जी की कहानी 'सही निर्णय' आदि रचनाएँ आकर्षित करती हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि 'प्रेरणा-अंशु' पत्रिका इसी तरह निकलती रहेगी और हमें पढ़ने को मिलती रहेगी। साहित्य सेवा की यह यात्रा अनवरत जारी रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है मेरी। पुनः आदरणीय पलाश जी एवं रूपेश जी को हार्दिक बधाई और अनंत शुभकामनायें!

-गोलेन्द्र पटेल (कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक, छात्र, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी)

संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

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Sunday, January 1, 2023

हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक सफरनामा वर्ष 2022

 

(चर्चित युवा कवि, लेखक व शिक्षक विनय विश्वा)

हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक सफरनामा वर्ष 2022


हिंदी साहित्य जगत में वर्ष 2022 कई मायनों में यादगार रहेगा।

जैसे साहित्य अकादमी पुरस्कार किसी काव्य संग्रह को मिला ,तो विश्व साहित्य में एनी एर्ना के संस्मरणात्मक , तो गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि को बुकर पुरस्कार, और भी कई मायने में यादगार रहा पर अब तक का ऐतिहासिक सफर ये कहता है की युवा कवि गोलेंद्र पटेल की कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' हिंदी साहित्य की अब तक की सबसे लंबी कविता है जो तीन खंड में है जो लगभग एक सौ बयासी पृष्ठ की है जो हिंदी साहित्य जगत में एक अमूल्य निधि है जिसे पढ़ा जाना चाहिए।

       और मजे की बात है की इस लंबी कविता की सबसे पहले आलोचना एक युवा कवि जो शिक्षक भी है और शोधार्थी भी विनय विश्वा के द्वारा की गई है जो कविता के नए आयाम खोलती हैं

             अब देखना यह ज़रूरी है की क्या हिंदी के सचमुच जो सेवा करने वाले हैं क्या इस महत्वपूर्ण कार्य को त्वज्जों देंगे या केवल साहित्य सेवी साहित्य सेवी का नारा भर ही लगाएंगे ,या महंत बने फिरते रहेंगे।

    आख़िर कब तक नई पीढ़ी को इंतज़ार करनी पड़ेगी जब यह जगत छोड़ चुके होंगे जैसे मुक्तिबोध,धूमिल आदि महत्वपूर्ण कवि।

    2023 में इस प्रश्न के उत्तर का इंतज़ार रहेगा🙏

         धन्यवाद!

                    © विनय विश्वा

            01/01/2023

Friday, December 23, 2022

"जोंक' कविता : कायफल किसान के सर्वस्व का प्रतीक है" : आर. डी. आनंद

 कायफल किसान के सर्वस्व का प्रतीक है : आर. डी. आनंद



जोंक

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसती हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

-गोलेन्द्र पटेल

टिप्पणी :-

कविता में कर्षित किसान शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है ''उत्पीड़ित किसान''। वैसे इस कविता को समझने के लिए हमें "किसान'' और "मजदूर" की परिभाषा को संज्ञान में ले लेना चाहिए। किसान उन्हें कहा जाता है, जो खेती का काम करते हैं। इन्हें कृषक और खेतिहर के नाम से भी जाना जाता है। ये बाकी सभी लोगो के लिए खाद्य सामग्री का उत्पादन करते है। इसमें फसलों को उगाना, बागों में पौधे लगाना, पशुओं की देखभाल कर उन्हें बढ़ाना भी शामिल है। कोई भी किसान या तो खेत का मालिक हो सकता है या उस कृषि भूमि के मालिक द्वारा काम पर रखा गया मजदूर हो सकता है। अच्छी अर्थव्यवस्था वाले जगहों में किसान ही खेत का मालिक होता है और उसमें काम करने वाले उसके कर्मचारी या मजदूर होते हैं। हालांकि, इससे पहले तक केवल वही किसान होता था, जो खेत में फसल उगाता था।


कोई भी ऐसा व्यक्ति जो अपनी श्रम शक्ति को बेचकर रोजगार प्राप्त करके अपना जीवन यापन करता है तो वह एक मजदूर है। वैसे हमारे देश में औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947) की परिभाषा के अनुसार यह फैसला किया जाता है कि कौन मजदूर है। औद्योगिक विवाद अधिनियम के दफा 2 (एस) में मजदूर की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है: “मजदूर (प्रशिक्षु समेत) कोई भी ऐसा व्यक्ति है जो मजदूरी या वेतन के बदले, किसी उद्योग में शारीरिक, अकुशल, कुशल, तकनीकी, कार्यकारी, क्लर्क या सुपरवाइज़र का काम करता हो, चाहे काम की शर्तें स्पष्ट या अन्तर्निहित हों, वह मजदूर है।"


इस बात से स्पष्ट होता है कि एक मजदूर से फसल रोपने का भी काम लिया जा सकता है लेकिन मजदूर का काम सिर्फ फसल रोपना नहीं होता है जबकि किसान का कार्य खेती में सभी कार्यों को करना होता है। किसान मजबूरी में मजदूरी भी करता है लेकिन किसान का कार्य मजदूरी करना नहीं है बल्कि उसके मुख्य कार्यों में से फसल का रोपना भी आता है। यहाँ कविता में कवि प्रताड़ित किसान की बात कर रहा है। प्रताड़ित किसान यदि अन्य मजदूर के खेत में रोपाई नहीं करने जाएगा तो अपने खेत की रोपाई तो करेगा ही। यहाँ किसान और मजदूर के बुनियादी कार्य स्वरूप को लेकर फसल रोपाई पर आलोचना निर्थक होगा।


धूप-वर्षा में गाँठ भर पानी में किसान निहुरे-निहुरे धान की रोपाई करता है। खेत में जोंक उसका खून सूचती है। यहाँ जोंक वास्तविक परेशानी के अर्थ में भी है और शासन, प्रशासन और धन्नासेठों के पूँजीवादी रवैये के रूप में भी है जो किसान का सिर्फ फायदा उठाते हैं और मज़ाक बनाते हैं। टिड्डे भी उसकी परेशानी के सबब भी हैं और बाह्य विसंगतियों के प्रतुरूप भी हैं। काले कौए भी लुटेरों के प्रतीक हैं। इस तरह कवि की अनुभूति की प्रसंशा करना न सिर्फ आलोचक की जिम्मेदारी है बल्कि मजबूरी है।


अंत में, कवि अपनी फसल को "कायफल" की संज्ञा देता है। "कायफल" का पेड़ उत्तर प्रदेश, पंजाब, आसाम और हिमालय के गर्म जगहों में बहुत पाए जाते हैं। इसके पेड़ 10 से 15 फुट ऊंचे होते हैं। कायफल के पेड़ की छाल मटमैली भूरी होती है, पत्ते नुकीले व लम्बे होते हैं और इसके फल गोल होते हैं। कायफल की 2 जातियां होती है- काली और सफेद। कायफल के फूल छोटे, लाल, खुशबूदार और गुच्छों में होते हैं और फल एक इंच से भी छोटे, गोल, पकने पर खून के रंग या पीलापन लिए बादामी रंग के होते हैं। फल का स्वाद मीठा व खट्टा होता है। फलों के ऊपर सफेद रंग का आवरण चढ़ा रहता है जो भूरे व काले धब्बे से युक्त होते हैं। फलों में झुर्रिदार बीज होते हैं जो फालसे की तरह स्वादिष्ट होते हैं। इसकी छाल से रस्सियाँ बनाई जाती हैं। औषधियों के लिए लाल कायफल अधिक उपयोगी होता है। पेड़ की छाल को भी कायफल कहते है और यह भी औषधियों के रूप में प्रयोग की जाती है।


कायफल का रस स्वाद में कडुवा, तीखा व कषैला होता है। इसकी प्रकृति गर्म होती है। इसका फल पकने के बाद कडुवा हो जाता है। कायफल वात व कफ से उत्पन्न रोगों को शांत करता है और वात के कारण उत्पन्न दर्द को खत्म करता है। इसका उपयोग सिर दर्द, सर्दी-जुकाम, मूर्च्छा (बेहोशी) एवं मिर्गी आदि के लिए किया जाता है। यह सांस रोग व खांसी में फायदेमंद है। यह नपुंसकता को मिटाता है। इसके फूलों से निकाले गए तेल भी गर्म व रूखा होता है। इसके तेल से लकवा की बीमारी में मालिश करने से फायदा होता है। नपुंसकता में इस तेल को लिंग पर मलने से नपुंसकता दूर होती है। यह सिर दर्द को दूर करता है और नाक में इसके तेल को टपकाने से नाक से खून आना बंद होता है।


कायफल का रासायनिक तत्त्वों का विश्लेषण करने पर पता चला है कि कायफल की छाल में 32 प्रतिशत टैनिन और मिरिसाइट्रिन नामक ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। कायफल उत्तेजक, संकोचक, कृमिनाशक, छाती में जमे हुए कफ को निकालने वाला, हृदय रोग में गुणकारी और अतिसार दूर करने वाला होता है।


किसान की फसल, जो हरे पेड़ पर लटका हुआ है, एक प्रतीक है। वह फसल कच्चे और खट्टे कायफल की तरह है। वह फसल ही किसान का सब कुछ है लेकिन वह सिवान के हरे पेड़ पर लटका है अर्थात उस पर भी उसका अधिकार नहीं है बल्कि वह किसी और के अधीन है। उस फसल को भी वह धन्नासेठों के लिए शहर में भेजने को मजबूर है।


शुभकामनाएँ!

आर डी आनंद

14.07.2020

कवि : गोलेन्द्र पटेल 

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