कविता का समुज्ज्वल पक्ष और कोरोजीविता// गोलेन्द्र पटेल
इकीसवीं सदी की त्रासदी की तान का जन्म कोई आकास्मिक घटना नहीं है बल्कि इसका बीज महामारियों के ऐतिहासिक जमीन में कई सदी पूर्व ही अंकुरित हो चुका था पर वह पल्लवित और पुष्पित नहीं हुआ और यह जन्म के ज्वर को सहन न कर सकने की वजह से शीघ्र ही महामारी की मिट्टी में मुँह के बगल लम्बे समय के लिए सो जाती थी पर सर्जनात्मकता की सृष्टि में संवेदना की शीतलता व उष्णता, अनुभूति की आर्द्रता और सर्जक की छींक से कभी-कभी कुछ समय के लिए जग जाती थी। कोरोनाकाल में इसी तान की तरंग कविता की ताकत बनकर संसार में गूँज रही है और यही ताकत जिन कविताओं में पायी जा रही है उसे आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल 'कोरोतान' के अंतर्गत रखते हुए, सुतर्क की कसौटी पर 'कोरोजीवी कविता' की सैद्धांतिकी निर्मित कर रहे हैं। जिसका हिन्दी जगत ही नहीं बल्कि गैर हिन्दी जगत भी खुलकर स्वागत कर रहा है।
आगे आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल इस कोरोजयी सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि "इस कोरोजीवी कविता का महत्व इस कारण से नहीं है कि यह महामारी के बावजूद लिखी जा रही है जिसमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ ही साथ इतिहासबोध की नयी अंतर्दृष्टि भी है।" इस संदर्भ में 'क्षीरसागर में नींद' संग्रह की कविता "संभवतः" की निम्नलिखित पंक्तियों को देखिये :-
"जब-जब इतिहास को नये तथ्यों की जरूरत महसूस हुई है/
यह सम्भवतः ही है जिसने सम्भव किया है/
मनुष्य के लिए एक नया इतिहास!" ('क्षीरसागर में नींद' / 31)
तो आइए, अब हम सब मिलकर महामारी से पूर्व गुरुदेव की दृष्टि पर अपनी पैनी दृष्टि डालते हैं और एकटक देखते हैं उनकी कविताओं को, कि कैसे वे अपनी कविताओं में भावी त्रासदी को दर्ज करते हुए नज़र आ रहे हैं।
"घर में कितने ही वायरस का प्रवेश है" ('बोली बात' / 80)
"उनके घर में बच्चा उनका कितना बीमार है/
पत्नी उसकी इस बीमारी पर अपनी बीमारी कितना भूल चुकी है/
इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है उन्हें" (('बोली बात' / 96)
"यह मित्रताओं के टूटने का समय है'/.../
'तब कमरे में बिखरे अखबारों के बीच/
गिरे किसी लिफाफे के वजूद की तरह/
टूटेगी हमारी मित्रता'/.../
'तब हमारी मित्रता के टूटने के दिन होंगे" ('बोली बात' / 14)
"महाश्मशान की लपटों में कितनी आर्द्रता है" ('बोली बात' / 112)
"बाढ़ आए
बादल फटे
सूखा पड़े
फसल सूखे
किसान मर जाएँ
महामारी घर कर जाए" ('क्षीरसागर में नींद' / 77)
मास्क , फेसशील्ड , सोशल टिस्टेंशिंग, स्प्रेडर, सुप्ररस्प्रेडर , क्वारंटाइन, सेनेटाइजर , लॉक डाउन, फ्रंटलाइन वारियर , होम डिलेवरी , वर्क फ्राम होम , ऑनलाइन क्लासेज ,ऑक्सीजन, वेबिनार, शव, श्मशान, कबरिस्तान, मेडिकल व दवाओं का नाम आदि शब्दों के प्रयोग करने से कोई कविता 'कोरोजीवी कविता' नहीं होती है बल्कि इन सबके बजाय उसमें कोरोजीविता का तत्व होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह तत्व कोरोनाकाल से पहले की कविताओं में मौजूद नहीं है। जो भी कोरोजयी कवि है यह तत्व उनके यहाँ पहले से ही मौजूद है। जिसका जीता जागता उदाहरण स्वयं सिद्धांतकार श्रीप्रकाश शुक्ल हैं। यदि आपको कोरोजीविता के तत्वों को बारिकी से समझना है तो आप सिद्धांतकार के साथ-साथ आचार्य अरुण होता एवं युवा आलोचक अनिल कुमार पाण्डेय के लेखों को पढ़ सकते हैं।
एक ओर कोरोजीवी कविता समय की शहनाई का स्वर है तो दूसरी ओर ढोलक की धधकती ध्वनि है और जहाँ परिवेशगत संलग्नता में सभ्यता व संस्कृति का संगीतात्मक समन्वय इसकी विशेषता का चरम विकास है। जो पूर्ववर्ती काव्यपरंपरा में छायावाद से अधिक विकसित है, छायावादी कवियों के यहाँ भी दुःख है पर यह उनका स्थाई भाव नहीं। जो है कि हम कोरोजयी कवियों के यहाँ इसे देख रहे हैं। अतः प्रकृति की सूक्ष्म चेतना का परम प्रसार ही बुद्धि के विस्तार का समुज्ज्वलतम पक्ष है जिसका आधार मानवीय जिजिविषा है। हम कह सकते हैं कि कोरोजीवी कविता साहसपूर्ण आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति है और इसके सर्जक निराशा में निराकरण कवि हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि जब संवेदना संक्रमित हो रही हो, तब कविता में केवल उत्साहधर्मिता, कविता की प्रकृति को क्षति पहुँचाती है। जिसे कोरोजयी सर्जक अपने-अपने भूगोल व वय के अनुसार शक्ति में परिवर्तित करते हुए नज़र आ रहे हैं और यही इनकी कविता की ताकत भी है जो जड़ता को जड़ से उखाड़ने के बजाय पहले उसकी शाखाओं को, फिर तने को, फिर जड़ को क्रमशः काट रही है। यानी यह लोकधर्मिता के संस्कार से उपजी उम्मीद की कविता है और इसकी पहचान ही इसकी गतिशीलता है।
कुछ हैं जो कुछ करते तो नहीं है पर यहाँ-वहाँ इनसे-उनसे शिकायत करते रहते हैं और वे अपनी ऊर्जा का उपयोग उगाने में नहीं, बल्कि उगे हुए को नष्ट करने में लगाते हैं ताकि इतिहास उन्हें भी याद रखे। जैसा कि आप कोरोनाकाल में ही नहीं, बल्कि हर संकट के समय में उन्हें देखते हैं।
आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल की एक कविता है 'शिकायत'। जो इसी विडंबना को दर्ज करनेवाली सजीव दहकती हुई लपट की तरह है, जो कोरोनाकाल से बहुत पहले लिखी गयी थी। जिसकी आँच उन्हें एकबार में सुधारने में सक्षम है। जिसकी निम्नलिखित पंक्तियों के जरिये, आप समझ सकते हैं। वे लिखते हैं कि
"मुझे शिकायत है उन बहुत सारे लोगों से/
सारा जीवन करते रहे शिकायत जो/
कभी स्वयं से/
कभी समाज से" ('बोली बात' / 28)
पहली लहर से लेकर दूसरी लहर तक 'लौटना' नामक खतरनाक क्रिया की दहशत से हम सभी लोग भली-भाँति परिचित हैं और यह क्रिया हर रचनाकार के यहाँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मौजूद है। जो मजदूर शहरों में कई वर्षों से रह रहे थे। कुछ के तो अपने निजी घर थे पर वे भी अपनी पुस्तैनी घर लौट रहे थे। लौटने की प्रक्रिया में छूटने का जो दुःख होता है। उसे एक कोरोजयी कवि कोविडकाल से पहले कैसे महसुस कर कर अपनी कविता में ढ़ालता है यह काबिल तारीफ है। गुरुवर लिखते हैं कि "जिस मकान में हम वर्षों से रह रहे थे/
जब उसके छूटने की बारी आई/
तब बिदा होती बेटी की तरह/
हमारे भीतर कुछ टूट रहा था" ('बोली बात' / 25)
इसकी परिधि पर नहीं बल्कि केंद्र में स्पर्श की स्पर्धा है। जो एक तरह की मनोवैज्ञानिक भूमि का निर्माण करती है। जिसकी मिट्टी मानवता की मिट्टी की तरह उपजाऊ है। इसके बीज 'श्रम', 'संघर्ष', एवं 'प्रयत्न' आदि होने के कारण केवल उग ही नहीं रहे हैं बल्कि विमर्श का विशाल वृक्ष उन 'भूखे', 'थके', 'हारे' आदि लोगों के लिए बन रहे हैं। जो इसके 'फल','फूल' एवं 'छाया' आदि के अधिकारी हैं। इस संबंध में आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि "यह जो कोरोजीवी कविता है, प्रतिभा से अधिक, श्रम के महत्व की शिनाख्त करने वाली कविता है।" अर्थात् इसमें श्रम का सौंदर्य और संवेग की सुगंध दोनों एक साथ मौजूद हैं। अतः हम कह सकते हैं कि 'कोरोजीवी कविता' केवल कहने वाली ही नहीं है बल्कि करने वाली भी है।
सभ्यता व संस्कृति के समन्वय का संगीतात्मक रस, राजनीति का द्वंद्वात्मक राग तथा अनुभूति के अनुराग से लबालब भरी है 'कोरोजीवी कविता'। यदि हम जिज्ञासा की भाषा में कहें तो यह कह सकते हैं कि चेतना की चित्रात्मक अभिव्यक्ति ही संकट के समय में सर्जक का मूल स्वर होता है। अतः यह चुनौतियों के विरुद्ध चमक की कविता है। जहाँ उम्मीद की उजाला स्थाई है और वहीं पर 'कोरोजयी कवि' क्रमशः 'लोकधर्मी', 'क्रांतिधर्मी' एवं 'युगधर्मी' के रूप में उपस्थित है। जिसकी मानवीय संवेदना भय की भूमि में हताश, उदास, निराश, दीन-दुखी एवं असहाय मनुष्य के भीतर उम्मीद, उजास, आशा, सम्भावना,एवं जिजीविषा को जन्म देने वाली है। जब-जब मनुष्यता पर आफ़त आयी है कला, साहित्य एवं संस्कृति के शुभचिंतकों ने अपनी अहम भूमिका निभाये हैं। रचनात्मकता का रूप निखरा है और संवेदनशीलता का स्वरूप सार्थकता के साँचे में ढला है। अर्थात् समाज में सृजनात्मक सजगता बढ़ी है।
तीसरी लहर के दौरान महामारी के महासागर में शवों को तैरते हुए तथा श्मशान में चिता के लिए कम पड़ी लकड़ी का दर्दनाक दृश्य को हमने अपनी आँखों से देखा है। दिल और दिमाग को झकझोरने वाले अनेक दृश्य आज भी हमारी पुतलियों में कैद हैं। ट्रेन के पटरियों पर बिखरी लाशों का चित्र हो या प्लेटफार्म पर मृत पड़ी माँ से चिपके शिशु की संवेदना का साक्षात्कार हो या फिर बाढ़ में डूबी दुनिया का दर्शन हो। ये सभी तस्वीरें सत्ता की क्रूरता से कुश्ती करने के लिए उद्धत हैं। जो शब्दों के चित्रों का सामर्थ्य है और कोरोजयी कवि की कालजयी कला भी। महामारी से पूर्व इस भयावह भविष्य का दर्शन करने वाले आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल लिखते हैं कि
"इस सभा में शव के लिए प्रार्थनाएँ की गयीं/.../
ठीक जैसे किसी लेखक की गम्भीर बीमारी में उसके बारे में पुराने पन्ने पलटे जाते हैं/
कि न जाने श्रदांजलि के दो शब्द बोलने का प्रस्ताव कब आ जाय!" ('क्षीरसागर में नींद' / 81)
इस महामारी के मुख में हिंदी के कवि मंगलेश डबराल से लेकर उर्दू के शायर डॉ. राहत इंदौरी तक अनेक साहित्य साधक समा गये हैं। सुबह-सुबह सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि का सुमन समर्पित करना, ऐसा लग रहा था मानो दुःख के दिन सूर्य को अर्घ्य देना है।
ऐसे में कवि की आत्मा अत्यंत दुखी थी और आँखों में था आँसू का समुद्र। फिर भी वह 'आपदा को अवसर' के रूप न देखकर, बल्कि मन की नवीन दृष्टि से उसे 'कोरोना में क्रियेशन' के रूप देख रहा था तथा महामारियों का मूल्यांकन करते हुए नये सूत्रों के संदर्भों की तलाश कर रहा था। दरअसल, यह तलाशने की प्रक्रिया इस त्रासदी से बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी। जिसकी उपज है 'कोरोजीवी कविता' का सिद्धांत। कुछ गिनेचुने हैं जो बिना विचारे ही विरोध की लाठी लेकर निकल पड़े हैं तो उनके लिए आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल की निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :-
"जिसके साथ ठीक से हुआ नहीं जा सकता/
उसके विरोध में कुछ कहा नहीं जा सकता/.../
विरोध की ठीक-ठीक उपस्थिति का इतिहास/
समर्पण के बार-बार अपमानित होने का इतिहास है" ('क्षीरसागर में नींद' / 15)
■■★■■ संक्षिप्त परिचय :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल
उपनाम : गोलेंद्र ज्ञान
जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) , बी.एच.यू.।
भाषा : हिंदी
विधा : कविता, कहानी व निबंध।
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल
काव्यगुरु : श्रीप्रकाश शुक्ल
मार्गदर्शक : सदानंद शाही, सुभाष राय, मदन कश्यप, स्वप्निल श्रीवास्तव, जितेंद्र श्रीवास्तव, अरुण होता, कमलेश वर्मा, वसंत सकरगाए, शैलेंद्र शांत, गिरीश पंंकज , विन्ध्याचल यादव एवं अन्य।
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :
कविताएँ और आलेख - 'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।
विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं।
ब्लॉग्स, वेबसाइट और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशन :-
गूगल के 100+ पॉपुलर साइट्स पर - 'हिन्दी कविता', 'साहित्य कुञ्ज', 'साहित्यिकी', 'जनता की आवाज़', 'पोषम पा', 'अपनी माटी', 'द लल्लनटॉप', 'अमर उजाला', 'समकालीन जनमत', 'लोकसाक्ष्य', 'अद्यतन कालक्रम', 'द साहित्यग्राम', 'लोकमंच', 'साहित्य रचना ई-पत्रिका', 'राष्ट्र चेतना पत्रिका', 'डुगडुगी', 'साहित्य सार', 'हस्तक्षेप', 'जन ज्वार', 'जखीरा डॉट कॉम', 'संवेदन स्पर्श - अभिप्राय', 'मीडिया स्वराज', 'अक्षरङ्ग', 'जानकी पुल', 'द पुरवाई', 'उम्मीदें', 'बोलती जिंदगी', 'फ्यूजबल्ब्स', 'गढ़निनाद', 'कविता बहार', 'हमारा मोर्चा', 'इंद्रधनुष जर्नल' , 'साहित्य सिनेमा सेतु' इत्यादि एवं कुछ लोगों के व्यक्तिगत साहित्यिक ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित हैं।
प्रसारण : राजस्थानी रेडियो, द लल्लनटॉप , वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार एवं अन्य यूट्यूब चैनल पर (पाठक : स्वयं संस्थापक)
अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित
काव्यपाठ : मैं भोजपुरी अध्ययन केंद्र (बीएचयू) में तीन-चार बार अपनी कविताओं का पाठ किया हूँ और 'क कला दीर्घा' से 'साखी' के फेसबुक पेज़ पर दो बार लाइव कविता पाठ। अनेक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठी में।
सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" और अनेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र।
संपर्क :
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संपादक : अर्जुन पटेल