### गोलेन्द्रवाद: एक मानवतावादी दर्शन की यात्रा
#### परिचय: गोलेन्द्रवाद का उदय और संदर्भ
आधुनिक विश्व में विचारधाराओं का जन्म अक्सर सामाजिक विखंडन, सांस्कृतिक संघर्ष और मानवीय मूल्यों की खोज से होता है। ऐसे में 'गोलेन्द्रवाद' (Golendrism) एक उभरती हुई विचारधारा के रूप में सामने आया है, जो जाति, धर्म, भाषा और भूगोल की सीमाओं को पार करते हुए मानवतावाद को केंद्र में स्थापित करती है। यह दर्शन न तो किसी प्राचीन ग्रंथ पर आधारित है और न ही किसी राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा; बल्कि यह समकालीन भारत के एक बहुजन कवि और विचारक, गोलेन्द्र पटेल की कलम और चिंतन से जन्मा है। गोलेन्द्र पटेल, जिन्हें हिंदी साहित्य में 'दूसरे कबीर' के रूप में जाना जाता है, एक ऐसे लोककवि हैं जो श्रमजीवी समाज की पीड़ा, सामाजिक अन्याय और मानवीय एकता को अपनी रचनाओं में उकेरते हैं। उनके अनुसार, गोलेन्द्रवाद कोई कठोर सिद्धांत नहीं, बल्कि 'मानवीय जीवन जीने की पद्धति' है – एक ऐसा मार्ग जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और समय-सापेक्षता पर आधारित हो।
गोलेन्द्रवाद का उदय 2020 के दशक के मध्य में हुआ, जब भारत जैसे बहुलतावादी समाज में जातिगत हिंसा, धार्मिक ध्रुवीकरण और आर्थिक असमानता चरम पर पहुंच गई। पटेल की कविताएं और सोशल मीडिया अभियान (जैसे @GolendraGyan) के माध्यम से यह विचारधारा फैली। यह दर्शन बौद्ध दर्शन की करुणा, मार्क्सवाद की वर्ग-संघर्ष की आलोचना, गाँधीवाद की अहिंसा और अंबेडकरवाद की समानता को एक सूत्र में पिरोता है। लेकिन यह इनसे अलग है, क्योंकि यह किसी एक विचारक या ग्रंथ पर निर्भर नहीं; बल्कि यह 'समय-सापेक्ष वैज्ञानिक दर्शन' है, जो बदलते युग के अनुसार विकसित होता रहता है।
इस निबंध में हम गोलेन्द्रवाद के अर्थ और परिभाषा को समझेंगे, उसके मूल सिद्धांतों का विश्लेषण करेंगे और फिर इसे विभिन्न प्रमुख वादों – जैसे गाँधीवाद, अंबेडकरवाद, मार्क्सवाद, बौद्धवाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद आदि – से तुलना करेंगे। यह तुलना न केवल समानताओं को उजागर करेगी, बल्कि गोलेन्द्रवाद की विशिष्टता को भी स्पष्ट करेगी। अंत में, हम देखेंगे कि यह दर्शन आधुनिक विश्व की चुनौतियों के लिए कितना प्रासंगिक है।
#### गोलेन्द्रवाद का अर्थ: मानवतावाद की नई व्याख्या
'गोलेन्द्रवाद' शब्द का निर्माण 'गोलेन्द्र' (पटेल का नाम) और 'वाद' (विचारधारा) से हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'गोलेन्द्र की विचारधारा', लेकिन गहराई में यह 'गोल' (पूर्णता) और 'इन्द्र' (ईश्वर या सर्वोच्च शक्ति) का संकेत देता है – अर्थात् मानव जीवन की पूर्णता की खोज। गोलेंद्र पटेल स्वयं इसे परिभाषित करते हैं: "गोलेन्द्रवाद मानवीय जीवन जीने की पद्धति है, जो जाति, धर्म, भाषा और भूगोल से निरपेक्ष, समय-सापेक्ष वैज्ञानिक दर्शन के साथ मानवतावाद पर केंद्रित है।" यहां 'मानवतावाद' (Humanism) का अर्थ है मानव को केंद्र में रखना, जहां व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता और समानता सर्वोपरि हैं। यह दर्शन न तो ईश्वर-केंद्रित है (जैसे धार्मिक वाद) और न ही वर्ग-केंद्रित (जैसे मार्क्सवाद); बल्कि यह 'मानव-सार्वभौमिकता' पर जोर देता है।
गोलेन्द्रवाद का मूल अर्थ जीवन की चार आयामों – मित्रता, मुहब्बत, मानवता और मुक्ति – में निहित है। जनकवि गोलेन्द्र पटेल के 'गोलेन्द्रवादी सूत्रवाक्य' में कहा गया है: "मित्रता में आधार, मुहब्बत में विस्तार, मानवता में सार और मुक्ति में उद्गार – यही है गोलेन्द्रवाद का चारत्व।" यहां मित्रता सामाजिक बंधन का आधार है, मुहब्बत भावनात्मक विस्तार, मानवता नैतिक सार और मुक्ति व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक। यह अर्थ आधुनिक मनोविज्ञान से प्रेरित है, जहां व्यक्ति को सामाजिक प्राणी मानते हुए उसके आंतरिक संघर्ष को वैज्ञानिक रूप से हल करने का प्रयास किया जाता है।
परिभाषा के संदर्भ में, गोलेन्द्रवाद को एक 'समावेशी मानवतावाद' कहा जा सकता है। यह दर्शन निम्नलिखित सिद्धांतों पर टिका है:
1. **जाति-धर्म निरपेक्षता**: गोलेन्द्रवाद किसी भी सामाजिक विभाजन को अस्वीकार करता है। पटेल कहते हैं, "गोलेन्द्रवादी दर्शन जाति, धर्म, भाषा एवं भूगोल निरपेक्ष है।" यह समानता का दावा करता है, जहां हर व्यक्ति बिना पूर्वाग्रह के मूल्यांकित हो।
2. **समय-सापेक्षता**: यह दर्शन स्थिर नहीं; यह विज्ञान और तकनीकी प्रगति के साथ विकसित होता है। उदाहरणस्वरूप, AI युग में गोलेन्द्रवाद डिजिटल समानता पर जोर देता है, जबकि प्राचीन काल में यह कृषि-आधारित समाज पर केंद्रित होता।
3. **वैज्ञानिक दृष्टिकोण**: अंधविश्वासों का खंडन करते हुए, यह तर्क और प्रमाण पर आधारित है। पटेल की कविताएं, जैसे संत अय्यंकाली पर आधारित रचना, विद्रोह को वैज्ञानिक विश्लेषण से जोड़ती हैं।
4. **मानवतावादी केंद्र**: इसका सार 'मानवता' है। किसान कवि गोलेन्द्र पटेल के अनुसार, "गोलेन्द्रवाद मानवतावादी दर्शन है।" यह करुणा, सहानुभूति और सामूहिक कल्याण को प्राथमिकता देता है।
गोलेन्द्रवाद का अर्थ केवल सैद्धांतिक नहीं; यह व्यावहारिक है। बहुजन कवि-लेखक गोलेन्द्र पटेल ने इसका 'मेनिफेस्टो' तैयार किया, जिसमें 'नवरत्न' (नौ रत्न) हैं: बुद्ध, कबीर, रैदास, तुकोबा, फुले, अंबेडकर, पेरियार, कार्ल मार्क्स और राहुल सांकृत्यायन। ये नवरत्न गोलेन्द्रवाद की विविधता दर्शाते हैं – बौद्ध करुणा से लेकर मार्क्सवादी आलोचना तक। इसका ध्वज (एक नवीन प्रतीक) समानता और मुक्ति का प्रतीक है। इस प्रकार, गोलेन्द्रवाद का अर्थ है एक ऐसा जीवन-दर्शन जो मानव को उसके पूर्ण स्वरूप में देखता है – संघर्षरत, लेकिन आशावादी।
#### गोलेन्द्रवाद की परिभाषा: सिद्धांतों का विस्तार
गोलेन्द्रवाद की परिभाषा को कवि गोलेन्द्र पटेल की रचनाओं से ही समझा जा सकता है। यह एक 'जीवन-पद्धति' है, जो चार स्तंभों पर खड़ी है:
- **मित्रता का आधार**: सामाजिक संबंधों को मजबूत करना। गोलेन्द्रवाद मानता है कि मित्रता ही समाज का मूल है, जो जातिगत बंधनों को तोड़ती है। कबीर की भक्ति परंपरा से प्रेरित, यह 'सबका साथ, सबका विकास' को आगे बढ़ाती है।
- **मुहब्बत का विस्तार**: प्रेम को सीमाहीन बनाना। यह गांधी की अहिंसा से जुड़ता है, लेकिन वैज्ञानिक रूप से – मनोविश्लेषणवाद (Freud) की तरह, जहां प्रेम दमन को मुक्त करता है।
- **मानवता का सार**: नैतिक केंद्र। अंबेडकर की समानता और पेरियार की तर्कशीलता से लिया गया, यह मानव अधिकारों को सर्वोच्च मानता है।
- **मुक्ति का उद्गार**: व्यक्तिगत स्वतंत्रता। बौद्ध मुक्ति (निर्वाण) और मार्क्सवादी वर्ग-मुक्ति का संयोजन, लेकिन समय-सापेक्ष – जैसे डिजिटल युग में सूचना की स्वतंत्रता।
परिभाषा के व्यावहारिक आयाम में, गोलेन्द्रवाद सामाजिक कार्यों को प्रोत्साहित करता है। दार्शनिक कवि गोलेन्द्र पटेल के अभियान, जैसे 'गोलेन्द्रवाद का ध्वज', सामाजिक न्याय के लिए जागरूकता फैलाते हैं। यह दर्शन उत्तर-आधुनिकतावाद (Postmodernism) से प्रभावित है, जहां सत्य बहुल है, लेकिन तर्कवाद (Rationalism) से बंधा।
गोलेन्द्रवाद की परिभाषा में एक महत्वपूर्ण तत्व है 'समावेशिता'। यह न केवल बहुजन समाज को संबोधित करता है, बल्कि सभी वर्गों को। काव्यानुप्रासाधिराज गोलेन्द्र पटेल कहते हैं, "कबीर न तो हिंदुत्व के नायक हैं, न इस्लाम के; वे श्रमजीवी समाज के नायक हैं।" इस प्रकार, यह दर्शन मानव को उसके सार्वभौमिक स्वरूप में देखता है – बिना लेबल के।
#### विभिन्न वादों से गोलेन्द्रवाद की तुलना
गोलेन्द्रवाद की सच्ची परीक्षा तब होती है जब इसे अन्य प्रमुख विचारधाराओं से तुलना की जाए। हम इसे छह प्रमुख वादों – गाँधीवाद, अंबेडकरवाद, मार्क्सवाद, बौद्धवाद, समाजवाद और राष्ट्रवाद – से जोड़ेंगे। यह तुलना समानताओं, भिन्नताओं और पूरकता पर आधारित होगी।
1. **गोलेन्द्रवाद बनाम गाँधीवाद**:
गाँधीवाद अहिंसा, सत्याग्रह और स्वदेशी पर आधारित है, जो गोलेन्द्रवाद की मुहब्बत और मानवता से मेल खाता है। दोनों ही जाति-व्यवस्था का विरोध करते हैं – गाँधी का 'हरिजन' आंदोलन और गोलेन्द्र का निरपेक्ष मानवतावाद। लेकिन भिन्नता स्पष्ट है: गाँधीवाद धार्मिक (हिंदू-ईसाई संवाद) है, जबकि गोलेन्द्रवाद वैज्ञानिक और धर्म-निरपेक्ष। गाँधी की 'रामराज्य' अवधारणा गोलेन्द्रवाद की मुक्ति से जुड़ती है, लेकिन गोलेन्द्रवाद समय-सापेक्ष है – गाँधी की तरह स्थिर नहीं। समानता: दोनों अहिंसा को सामाजिक परिवर्तन का हथियार मानते हैं। भिन्नता: गाँधीवाद ग्रामीण-केंद्रित, गोलेन्द्रवाद शहरी-डिजिटल। गोलेन्द्रवाद गाँधी को 'नवरत्न' में शामिल न करके भी उसकी पूरकता स्वीकार करता है।
2. **गोलेन्द्रवाद बनाम अंबेडकरवाद**:
अंबेडकरवाद संविधान, समानता और दलित उत्थान पर केंद्रित है, जो गोलेन्द्रवाद की मानवता के सार से सीधे जुड़ता है। दोनों ही जाति-व्यवस्था को 'सामाजिक हत्या' मानते हैं। अंबेडकर का 'बौद्ध धर्म अपनाओ' गोलेन्द्रवाद के बौद्ध नवरत्न से मेल खाता है। समानता: दोनों बहुजन-केंद्रित, न्याय-आधारित। भिन्नता: अंबेडकरवाद कानूनी (संविधान) है, गोलेन्द्रवाद दार्शनिक और वैज्ञानिक। अंबेडकर की 'ग्रेडेड इनइक्वालिटी' आलोचना गोलेन्द्रवाद में विस्तारित है, लेकिन गोलेन्द्रवाद पेरियार और फुले को जोड़कर दक्षिण भारतीय संदर्भ जोड़ता है। गोलेन्द्रवाद अंबेडकर को 'नायक' मानता है, लेकिन उसे सार्वभौमिक बनाता है।
3. **गोलेन्द्रवाद बनाम मार्क्सवाद**:
मार्क्सवाद वर्ग-संघर्ष, उत्पादन-संबंध और क्रांति पर आधारित है, जो गोलेन्द्रवाद की मुक्ति के उद्गार से जुड़ता है। दोनों ही पूंजीवाद का विरोध करते हैं। मार्क्स का 'प्रोलेटेरियट' गोलेन्द्रवाद के श्रमजीवी समाज से मेल खाता है। समानता: आर्थिक समानता का जोर। भिन्नता: मार्क्सवाद भौतिकवादी (Dialectical Materialism) है, गोलेन्द्रवाद मानवतावादी और वैज्ञानिक – क्रांति के बजाय संवाद पर। गोलेन्द्रवाद मार्क्स को नवरत्न में रखकर उसकी आलोचना को समाहित करता है, लेकिन हिंसा को अस्वीकार करता है।
4. **गोलेन्द्रवाद बनाम बौद्धवाद**:
बौद्धवाद चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग और करुणा पर टिका है, जो गोलेन्द्रवाद की मित्रता और मुहब्बत से सीधा संबंध रखता है। बुद्ध का 'अहिंसा परमो धर्मः' गोलेन्द्रवाद का आधार है। समानता: दोनों दुख-निवारण पर केंद्रित। भिन्नता: बौद्धवाद आध्यात्मिक (निर्वाण), गोलेन्द्रवाद वैज्ञानिक (समय-सापेक्ष)। गोलेन्द्रवाद बुद्ध को नवरत्न का प्रथम रत्न मानता है, लेकिन कबीर-रैदास को जोड़कर भक्ति परंपरा का विस्तार करता है।
5. **गोलेन्द्रवाद बनाम समाजवाद**:
समाजवाद सामूहिक स्वामित्व और समान वितरण पर है, जो गोलेन्द्रवाद की मानवता से जुड़ता है। दोनों ही असमानता का विरोध करते हैं। समानता: कल्याण-राज्य का सपना। भिन्नता: समाजवाद राज्य-केंद्रित, गोलेन्द्रवाद व्यक्ति-केंद्रित। गोलेन्द्रवाद समाजवाद को मार्क्स के माध्यम से समाहित करता है, लेकिन किसानवाद (फुले) जोड़कर ग्रामीण फोकस देता है।
6. **गोलेन्द्रवाद बनाम राष्ट्रवाद**:
राष्ट्रवाद राष्ट्रीय एकता पर जोर देता है, लेकिन अक्सर सांप्रदायिक होता है। गोलेन्द्रवाद का राष्ट्रवाद 'मानवतावादी' है – भूगोल-निरपेक्ष। समानता: एकता का आह्वान। भिन्नता: राष्ट्रवाद सीमाबद्ध, गोलेन्द्रवाद वैश्विक। कवि गोलेंद्र पटेल का दर्शन राहुल सांकृत्यायन के यात्रा-वृत्तांतों से प्रेरित है, जो राष्ट्रवाद को विस्तारित करता है।
इन तुलनाओं से स्पष्ट है कि गोलेन्द्रवाद एक 'संश्लेषणात्मक दर्शन' है – वह अन्य वादों को अवशोषित करता है, लेकिन अपनी वैज्ञानिक निरपेक्षता से अलग खड़ा होता है। जहां गाँधीवाद आध्यात्मिक, मार्क्सवाद भौतिकवादी है, गोलेन्द्रवाद दोनों का पुल है।
#### निष्कर्ष: गोलेन्द्रवाद की प्रासंगिकता
गोलेन्द्रवाद आधुनिक विश्व की विखंडित चेतना के लिए एक नई उम्मीद है। जलवायु संकट, AI नैतिकता और सामाजिक ध्रुवीकरण के दौर में यह दर्शन मानव को उसके मूल में लौटाता है – मित्रता, प्रेम और मुक्ति के माध्यम से। कवि गोलेन्द्र पटेल की तरह, यह दर्शन कविता से जन्मा है, लेकिन राजनीति तक फैल सकता है। चुनौतियां हैं: इसकी युवावस्था के कारण व्यापक स्वीकृति न मिलना। लेकिन संभावनाएं अनंत हैं – एक ऐसा विश्व जहां मानवता ही धर्म हो। गोलेन्द्रवाद सिखाता है: "मानवता में सार है, मुक्ति में उद्गार।" यह न केवल भारत, बल्कि वैश्विक मानवतावाद का नया अध्याय लिख सकता है।
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*गोलेन्द्रवाद (Golendrism) संक्षिप्त अध्ययन*
*एक प्रस्तावना*
गोलेन्द्र पटेल भारतीय हिंदी-भाषा के समकालीन युवा कवि एवं चिंतक हैं, जिनकी कविताओं और निबंधों में किसान-श्रमिक जीवन, सामाजिक असमानता, दलित-बहुजन चेतना, मानव-मात्र के प्रति संवेदना तथा आध्यात्म-दृष्टि स्पष्ट रूप से पाई जाती है।
उनकी लेखनी ने ऐसे विषयों को उठा-उठाकर लिया है, जिन्हें परंपरागत मुख्यधारा कभी पर्याप्त रूप से नहीं उठाती। इसलिए, उनके चिंतन-विकास को “वाद” की शक्ल देने का एक प्रयास यहाँ किया जा रहा है — यानी, “गोलेन्द्रवाद” को एक चिंतात्मक प्रणाली-रूप में देखने का।
“वाद” का अभिप्राय है — एक विचार-धारा, चिंतन-प्रणाली, दृष्टिकोण-प्रणाली, जो सामाजिक-सांस्कृतिक-दर्शनीय आयामों में सक्रिय हो। इस अर्थ में, यदि हम गोलेन्द्रवाद को एक वाद के रूप में स्थापित करना चाहें, तो हमें उसकी परिभाषा, मूल तत्व, सूत्रवाक्य (यदि हो सके तो), उद्देश्य, प्रमुख विशेषताएँ, फिर विभिन्न अन्य वादों से तुलना करनी होगी — जैसे मार्क्सवाद, गांधीवाद, नारीवादी वाद, दलितवाद आदि — ताकि उसकी विशिष्टता उजागर हो सके।
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*गोलेन्द्रवाद: परिभाषा एवं अर्थ*
*परिभाषा*
गोलेन्द्रवाद को मैं निम्नलिखित प्रस्तावित परिभाषा में प्रस्तुत कर रहा हूँ:
> गोलेन्द्रवाद वह चिंतन-धारा है, जो मानव-मात्र के प्रति आधारभूत मित्रता तथा मुहब्बत (प्रेम) को मूलधारा मानती है; जिसकी दृष्टि बहुजन, श्रमिक, किसान तथा उपेक्षित-पीछे छूटे वर्गों की उत्थान-मुक्ति की ओर अग्रसर है; जिसमें रचना-और-संवेदना सामाजिक न्याय, जाति-वेदभाव-शोषण के विरुद्ध सक्रिय हैं; तथा जिसमें क्रिया (श्रम), प्रकृति, मिट्टी, तन, भाषा एवं लोक-संस्कृति एकीकृत रूप से दर्शन-और-कविता-की दिशा में काम करती है।
इसमें कुछ महत्वपूर्ण शब्द-समूह हैं — मित्रता, मुहब्बत, मानव-मात्र, बहुजन, श्रमिक-किसान, सामाजिक न्याय, शोषण-विरोध, श्रम-सत्य, लोक-संस्कृति।
उदाहरण के लिए: “मित्रता में आधार, मुहब्बत में विस्तार, मानवता में सार और मुक्ति में उद्गार — यही है गोलेन्द्रवाद का चारत्व।”
यह सूत्रवाक्य गोलेन्द्रवाद के मूलस्वरूप को संक्षिप्त करता है।
अर्थ
गोलेन्द्रवाद के अर्थ को हम निम्न बिंदुओं में देख सकते हैं:
1. मानव-मात्र को केंद्र में रखना
गोलेन्द्रवाद यह मानता है कि कविता, चिंतन, समाज-सुधार का मूल लक्ष्य ‘मानव-मात्र की मुक्ति एवं उसके सशक्तिकरण’ होना चाहिए — न कि केवल शिल्प-परिष्कार या भाषाई-प्रयोग। उनका कई गीत-कविताओं में यह दृष्टि मिलती है कि “मैं मजदूर का बच्चा हूँ”, “मुझे दक्खिन टोले का आदमी हूँ” इत्यादि।
इस अर्थ में, गोलेन्द्रवाद मानवीय संवेदना को सामाजिक परिवर्तक शक्ति के रूप में देखता है।
2. श्रम-किसान-लघुजीवित-वंचित वर्गों की आवाज़ उठाना
उनका काव्य ऐसा है जिसमें हल चलाना, खेत जोतना, धान उगाना, मजदूरी करना आदि आधारित अनुभवों से जुड़े दृश्य मिलते हैं। जिनके माध्यम से शोषण, जाति-विभेद, भूख, ग्रामीण जीवन की पीड़ा और उससे निकलने वाला संघर्ष उजागर होता है। उदाहरणस्वरूप: “प्रजा को प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से रस नहीं, रक्त निकलता है साहब”।
अर्थात्, गोलेन्द्रवाद उन वर्गों के अनुभव-साधारण को साहित्य-चिंतन में सूत्रबद्ध करता है, जिन्हें मुख्यधारा की भाषा अक्सर ‘अभी तक संकेत’ के रूप में ही लेती आई है।
3. मित्रता एवं मुहब्बत का समाज-वैज्ञानिक अर्थ
यहाँ मित्रता और मुहब्बत केवल भावनात्मक-परस्परता नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से सक्रिय-शब्द हैं — समाज में एकता-सहयोग, जात-धर्म-भेद की सीमाओं का टूटना, और साझा-मानवता की अनुभूति। इस दृष्टि से गोलेन्द्रवाद कहता है कि सामाजिक संघर्ष केवल प्रतिरोध-कीक्रिया नहीं, बल्कि एक नया संवेदनशील संबंध-निर्माण भी है।
4. मुक्ति का अर्थ तथा दिशाएँ
गोलेन्द्रवाद में ‘मुक्ति’ का अर्थ सिर्फ व्यक्तिगत–आध्यात्मिक मुक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति है — जात-शोषण, कन्ज्यूमर-पूंजीवाद, श्रमिक-शोषण, पारंपरिक उपेक्षा से मुक्ति। यह मुक्ति सामाजिक चेतना, संघर्ष और सुधार की दिशा में है।
5. लोक-भाषा, मिट्टी-अनुभव, भाषा-साधारण का उपयोग
कवि-चिंतक की शैली में उच्च-भाषाई जटिलता की जगह अधिकतर साधारण भाषा, लोक-अनुभव, ग्रामीण-शब्दावली, माटी-गंध की प्रतिध्वनि देखने को मिलती है। इस दृष्टि से गोलेन्द्रवाद कहता है कि साहित्य-चिंतन को अपने ‘उपभोक्ताओं’ (जो आम-जन हैं) से दूर नहीं होना चाहिए।
6. दर्शन-और-कविता का समन्वय
गोलेन्द्रवाद सिर्फ कविता-तक ही सीमित नहीं है; उसमें एक दर्शन-दृष्टि है — श्रम-मानव-प्रकृति-मुक्ति-एकता-सहयोग –, जो कविताओं के भाव-विस्तार से जुड़ी है। इसलिए यह वाद साहित्य-और-दर्शन का मिश्रित रूप है।
संक्षिप्त सूत्र
यदि इसे संक्षिप्त सूत्रों में प्रस्तुत करें:
मित्रता → आधार
मुहब्बत → प्रवहमान हृदय
मानवता → सार
मुक्ति → उद्गार
(जैसा कि कवि-स्वयं ने कहा है)
यह चार-चरणीय मूलाकृति गोलेन्द्रवाद के चिंतन-संयोजन का संकेत देती है।
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*गोलेन्द्रवाद के प्रमुख तत्व*
गोलेन्द्रवाद को आगे खोलते हुए, इसके कुछ प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं — ये लहरें-नुमा नहीं, बल्कि जाली-नुमा हैं — एक-दूसरे के बीच संबंध बनाते हुए समझने योग्य।
1. श्रम-मानवत्व
– गोलेन्द्रवाद में श्रम (मानव-मजदूरी, खेती, हल, कोल्हू-मजदूरी आदि) सिर्फ आर्थिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि मानव-अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। उदाहरण के रूप में उनकी कविता में यह दृश्य मिलता है कि “थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ देखकर… रक्त तो भूसा सोख गया है”।
– श्रम-मानवत्व उन लोगों के पक्ष में बोलता है जिन्हें राष्ट्रीय-उन्नति-की-भाषा में अक्सर अन्तःस्थ किया जाता है। गोलेन्द्रवाद उन दृश्यों को सामने लाता है जहाँ श्रमकर्ता-किसान “हिस्सेदार” नहीं बल्कि “उपेक्षित” रहे हैं।
– इस दृष्टि से, श्रम-मानवत्व सामाजिक न्याय के लिए एक आधारभूत सिद्धांत है: जब मानव को उसके श्रम के माध्यम से नहीं पहचाना जाता, तो मानवता का घाव होता है।
– इसके साथ यह तत्व यह बताता है कि कविता-चिंतन तभी सच्चा हो सकता है जब वह श्रम-मानव की भाषा में आवाज दे, और उसकी पीड़ा-उम्मीद को अनदेखा न करे।
2. बहुजन-चेतना और सामाजिक-परिवर्तन
– गोलेन्द्रवाद में ‘बहुजन’ (जनतांत्रिक सामाजिक-मंच में पिछड़े-शोषित-वंचित वर्ग) की चेतना केन्द्र में आती है। इस दृष्टि में वह सामाजिक-सुधार का वादा करता है।
– इस चेतना के अंदर दलित-पिछड़े, किसान-श्रमिक, आदिवासी-वर्ग शामिल होते हैं, जो परम्परागत सामाजिक-विन्यास (जात-धर्म-शोषण) के शिकार रहे हैं। गोलेन्द्रवाद उन्हें सिर्फ विषय-वस्तु नहीं बनाता बल्कि सक्रिय एजेंट मानता है।
– सामाजिक-परिवर्तन के उपकरण के रूप में कविता-और-चिंतन को स्वीकार किया जाता है: जब文学 (साहित्य) केवल सौन्दर्य-उद्देश्य से बाहर निकल कर सामाजिक-वाणी बन जाए, तब ही वह परिवर्तन-योग्य बनती है।
– इस दृष्टि से गोलेन्द्रवाद मूलतः विरोधात्मक-समर्थनात्मक दोनों ही है — विरोध शोषण-के खिलाफ़, समर्थन मानव-की पक्ष में।
3. मित्रता-और-मुहब्बत-का दर्शन
– गोलेन्द्रवाद में मित्रता और मुहब्बत सिर्फ व्यक्तिगत भावना नहीं, बल्कि सामाजिक प्रीतिवाद (affinity) की भाषा हैं। सामाजिक विभाजन (जात-धर्म-वर्ग) को पार करते हुए, समानुभूति-साझेदारी का निर्माण।
– यह दर्शन कहता है कि जब हम “मित्रता” को आधार बनाएँ और “मुहब्बत” को प्रवाहमान हृदय बनाएँ, तभी मानव-सम्बन्ध साकार हो पाते हैं।
– इसलिए, गोलेन्द्रवाद में विरोध-केंद्रित वादों की तरह केवल संघर्ष-उन्मुख नहीं बल्कि निर्माण-उन्मुख भी दृष्टि है-जहाँ नया संबंध-जाल बनता है।
– उदाहरण: कविताओं में “मुसहरिन माँ”, “हम माटी के प्रेमी किसान हैं” जैसे शीर्षक इसके सामाजिक-मित्रत्व की ओर संकेत करते हैं।
4. भाषा-अनुभव-लोक-मिट्टी-मूल
– गोलेन्द्रवाद में भाषा-साधारण, मिट्टी-गंध, ग्रामीण-अनुभव, लोक-संस्कृति को प्रतिष्ठित स्थान मिलता है। यह एक प्रकार का सहज-साहित्य (eco-literature) कह सकते हैं।
– इसके अंतर्गत विशेष रूप से यह मान्यता है कि “उच्च” और “निम्न” भाषा-साधन का विभाजन समाज-दृष्टि से भी विभाजक है। गोलेन्द्रवादा इस विभाजन को चुनौती देता है।
– इस दृष्टि से वह कहता है कि “मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ” जैसे वाक्य सिर्फ अर्थ-वाक्य नहीं, चेतना-वाक्य हैं — आत्म-पहचान और प्रतिरोध दोनों।
– साथ ही, यह तत्व बताता है कि साहित्य-चिंतन को जमीनी-अनुभव से कटकर नहीं होना चाहिए — स्थितियों, पीड़ाओं, सरलता-भाषा को अपनाकर ही वह सामाजिक-प्रभावी बनती है।
5. मुक्ति-और-उद्गार
– गोलेन्द्रवाद की दिशा मुक्ति की ओर है — पर यह मुक्ति केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक है। मुक्ति का अर्थ है — जाति-संज्ञानाओं, वर्ग-भेदों, श्रम-शोषण के चक्र से आज़ादी।
– “उद्गार” का हिस्सा है — आवाज देना, पहचान मांगना, शोषित-का प्रतिनिधित्व करना।
– इस दृष्टि से, कविता-चिंतन सिर्फ आत्म-संतुष्टि-तक सीमित नहीं बल्कि क्रिया-संकेत बनती है। गोलेन्द्रवाद इसे सक्रिय-भूत बनाना चाहता है।
– इसलिए, मुक्ति-दृष्टि में आलोचना‐सुधार-निर्माण तीनों शामिल होते हैं: जहाँ हम कहते हैं — “यह ठीक नहीं है”, “यह बदलना चाहिए”, “हम बदलने को तैयार हैं”।
6. समग्र दृष्टि-दर्शन
– गोलेन्द्रवाद का वैश्विक (global) अर्थ यह है कि यह केवल एक कवि-वाद नहीं है, बल्कि एक साहित्य-दर्शन-प्रयास है — जहाँ कविता, समाज-विज्ञान, दर्शन-सहयोग से जुड़ती है।
– यह दृष्टि कहती है कि मानव-जीवन के विविध आयाम-श्रम, भाषा, जाति, वर्ग, सामाजिक न्याय, संवेदना-सहयोग-मुक्ति-सबलता– आपस में जुड़े हैं।
– इस प्रकार, गोलेन्द्रवाद ‘फ़ोकस्ड’ है — न कि बिखरी हुई चिंताओं के समूह का — बल्कि एक संयोजित प्रणाली है जिसमें संवेदना-सामाजिक-सुधार सम्बद्ध हैं।
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*गोलेन्द्रवाद का ऐतिहासिक-वित्तीय परिप्रेक्ष्य*
यहाँ मैं संक्षिप्त रूप में बताना चाहूँगा कि गोलेन्द्रवाद को समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि यह कहाँ-से प्रेरित है, उसकी पृष्ठभूमि क्या है, और यह किन सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ है।
1. सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
गोलेन्द्र पटेल उत्तर-भारत (उत्तर प्रदेश) के चंदौली जिले के खजूरगाँव गाँव से हैं। इस ग्रामीण-मज़दूर-प्रकृति-वित्तीय पृष्ठभूमि ने उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव दिया है: किसान-मज़दूर-जीवन, भाषा-भेद, सामाजिक-उपेक्षा-वर्गीय विभाजन आदि।
इस अनुभव-भूमि ने उन्हें सिर्फ “कविता-लेखक” नहीं बल्कि “सामाजिक-प्रतिनिधि-कवि” के रूप में आकार दिया।
2. समकालीन साहित्य-परिस्थितियाँ
आज हिन्दी साहित्य में जहाँ पारंपरिक-शिक्षित-हिस्सेदारी-वर्गीय लेखन अधिक रहा है, वहीं गोलेन्द्र पटेल का लेखन एक नए-धारा का प्रतिनिधि है — जो ‘लोक-अनुभव’, ‘बहुजन-वर्ग’, ‘श्रम-भूमि’ आदि‐लक्षित विषयों को उठाता है। इस दृष्टि से गोलेन्द्रवाद उस अंतर को भरने का प्रयास है जिसे मुख्यधारा-साहित्य ने अक्सर अनदेखा किया है।
उदाहरणस्वरूप, उनकी कविताओं को प्रमुख हिन्दी समाचार मंचों एवं साहित्यीक साइटों ने प्रकाशित किया है।
3. दर्शनीय-प्रेरणा-स्रोत
— कवि-कृषक-श्रमिक जीवन से उनका जुड़ाव,
— सामाजिक-न्याय-विचार,
— भाषा एवं संस्कृति-अनुभव का पुनर्मूल्यांकन,
— सम्प्रति-जनित विभाजन-विरोध की चेतना।
इन प्रेरणाओं को उन्होंने साहित्य-कविता-चिंतन के रूप में व्यक्त किया है।
इस संदर्भ में, गोलेन्द्रवाद को एक तरह से “साहित्य का समाज-दर्शन रूप” कहा जा सकता है।
4. विकास-प्रक्रिया
गोलेन्द्रवाद आज-कल सक्रिय रूप से एक प्रवृत्ति के रूप में उभरी है — जहाँ कविताएँ, निबंध, ब्लॉग्स, ई-पत्रिकाएँ इसे आगे ले जा रही हैं। उदाहरण स्वरूप, गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ विभिन्न पत्रिकाओं-वेबसाइटों में प्रकाशित होती रही हैं।
इस तरह, गोलेन्द्रवाद एक विकासशील विचार-प्रवाह है — न कि स्थिर सिद्धान्त।
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*गोलेन्द्रवाद की विशेषताएँ*
गोलेन्द्रवाद को अन्य विचार-वादों से अलग खड़ा करने वाली कुछ विशिष्ट विशेषताएँ यहां सूचीबद्ध हैं:
सहज भाषा-लोक-अनुभव-श्रवण: उत्तरोत्तर जटिल भाषा-प्रयोग के बजाय, गोलेन्द्रवाद अपने आसपास की भाषा-भूमि से संवाद करता है — जहाँ किसान, मजदूर, ग्रामीण जीवन हैं।
संवेदना-और-कार्रवाई-समन्वय: सिर्फ संवेदना-रचना नहीं, बल्कि उस संवेदनात्मक रचना का सामाजिक-क्रियात्मक असर।
वर्ग-विरोध तथा मानव-केंद्रित दृष्टि: केवल वर्ग-विरोध नहीं, बल्कि मानव-मात्र के पक्ष में सक्रिय दृष्टि।
समूहीय-मुक्ति-दृष्टि: मुक्ति-को केवल व्यक्तिगत-वास्तु नहीं माना गया, बल्कि सामाजिक-सामूहिक आधार पर देखा गया।
निर्माण-उन्मुखता: चाहे विरोध हो या प्रतिरोध, अंततः एक सकारात्मक निर्माण-दृष्टि सामने है — नया संबंध, नया मानव-मंच, नया सामाजिक-संघ बनने का प्रस्ताव।
लोक-स्रोत-विधान: यह वाद पूर्व-निर्धारित डॉक्स नहीं बल्कि काव्य-प्रेरित, अनुभव-प्रेरित है; इसलिए इसकी संरचना और भाषा कठिन या जटिल नहीं बल्कि जीवंत-अनुभव-सम्बद्ध है।
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*गोलेन्द्रवाद का उद्देश्य*
गोलेन्द्रवाद का प्रमुख उद्देश्य निम्न हो सकते हैं:
1. मानव-मात्र की गरिमा को पुनर्स्थापित करना — विशेष रूप से उन लोगों की जिनके श्रम-सेवों पर समाज टिका है लेकिन उन्हें मान्यता नहीं मिली।
2. सामाजिक-न्याय तथा असमानता-विरोध की चेतना जगाना — जाति, वर्ग, भूख-गरीबी, श्रम-शोषण आदि को अंतर्दृष्टि से देखने और उनकी सुधार-दृष्टि विकसित करने में।
3. साहित्य-चिंतन को जन-भाषा एवं जन-अनुभव से जोड़ना — ताकि साहित्य केवल शास्त्रीय-प्रचारित-परिधियों में न रहे बल्कि जीवंत-जन-सोच-मंच बन सके।
4. सृजन-मंच का निर्माण — जहाँ कवि-चिंतक, किसान-श्रमिक, ग्रामीण-वर्ग, बहुजन-आन्दोलन आदि एक दूसरे के संवाद में आ सकें; सहायक-साझा भाषा में।
5. रचना-से-क्रिया-परिस्थिति-तक ले जाना — सिर्फ लिखना नहीं, बल्कि लिखा हुआ सामाजिक-सुधार-कर्म को प्रेरित करे।
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*विभिन्न वादों से तुलना*
अब हम गोलेन्द्रवाद की तुलना कुछ अन्य प्रमुख भारतीय वादों (सिंद्धांतों) से करेंगे — ताकि इसकी विशिष्ट पहचान उभरकर सामने आ सके। मैं तीन-चार प्रमुख वादों का चयन कर रहा हूँ:
1. मार्क्सवाद (Marxism)
2. गाँधीवाद (Gandhism)
3. दलितवाद (Dalit Thought)
4. नारीवाद (Feminist Thought)
हर एक से तुलना करते हुए, हम देखेंगे कि गोलेन्द्रवाद कहाँ मिलता है, कहाँ अस्वीकृत या प्रवेश-भिन्न है।
(१) मार्क्सवाद — तुलना
*समानताएँ*
दोनों में श्रम-मानवत्व का विशिष्ट स्थान है। मार्क्सवाद कहता है कि श्रमकर्ता (प्रोलैटेरिएट) समाज का आधार हैं। गोलेन्द्रवाद भी श्रम-मानव को वरीयता देता है।
सामाजिक-वर्ग, शोषण, उत्पादन-संघर्ष आदि की चर्चा दोनों में मिलती है। गोलेन्द्र की कविताओं में श्रम-शोषण, किसान-मज़दूर की पीड़ा-उम्मीद दिखाई देती है।
परिवर्तन-उन्मुख दृष्टि दोनों में है: मार्क्सवाद सामाजिक-परिवर्तन चाहता है, गोलेन्द्रवाद सामाजिक-मुक्ति चाहता है।
*विविधताएँ*
मार्क्सवाद आर्थिक उत्पादन-संघर्ष को सबसे प्राथमिक मानता है, जबकि गोलेन्द्रवाद श्रम-के साथ उस श्रम-मानव के अनुभव, भाषा, संवेदना को भी समता-प्राथमिकता देता है। अर्थात्, गोलेन्द्रवाद में अर्थ-मूल्य ≠ मात्र उत्पादन-मूल्य।
मार्क्सवाद में अक्सर वर्ग-सत्ता-संघर्ष की द्वंद्वात्मक भाषा-उपयोग होता है (“शोषक बनाम श्रमिक”), जबकि गोलेन्द्रवाद में मित्रता-मुहब्बत-सहयोग जैसे मधुर-संबंध-संकल्प भी महत्वपूर्ण हैं।
मार्क्सवाद में आमतौर पर विश्लेषणात्मक-वर्गीय दृष्टि प्रधान है, जबकि गोलेन्द्रवाद में भाव-भाषा, लोक-अनुभव, कविता-भूमि प्रमुख है।
मार्क्सवाद का लक्ष्य आमतौर पर एक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था-परिवर्तन है (उदाहरणस्वरूप समाजवाद, कम्युनिज्म), जबकि गोलेन्द्रवाद का लक्ष्य व्यक्तिगत-और-सामूहिक मुक्ति-दृष्टि के साथ सह-निर्माण-वेश है।
*निष्कर्ष*
इस प्रकार, गोलेन्द्रवाद को “मार्क्सवाद-लाइट” कह सकते हैं जहाँ वर्ग-विवेचन है लेकिन अनुभव-भाषा-संवेदना-सहयोग को अनदेखा नहीं किया गया। यदि मार्क्सवाद एक बड़ी-मशीनरी की तरह सामाजिक-विभाजन-विरोध-परिभाषित करता है, तो गोलेन्द्रवाद उस मशीन-भेदी विभाजन-कोमुनication (संवाद) की ओर ले जाता है।
(२) गाँधीवाद — तुलना
*समानताएँ*
गाँधीवाद में अहिंसा, मानव-भाईचारा, कृषि-जीवन की प्रतिष्ठा, स्वावलंबन जैसी बातें प्रमुख हैं। गोलेन्द्रवाद में भी मित्रता, मुहब्बत, मानवता-सहयोग की पद्धति नजर आती है।
दोनों वादों में मिट्टी-किसान-श्रमिक की स्थिति-भान है। गाँधी ने ग्राम-आधार, स्वदेशी, हल-खेत की गरिमा में लिखा है। गोलेन्द्र ने उसी अनुभव-क्षेत्र से साहित्य-पठ तैयार किया है।
दोनों में राष्ट्रीय-आर्थिक मॉडल से अलग “मानव-मानव” संबंध की ओर झुकाव है — जहाँ संबंध, सहयोग, लोक-जीवन की दिशा है।
*विविधताएँ*
गाँधीवाद में अहिंसा-सत्य-सेवाभाव का केंद्रीय स्थान है। गोलेन्द्रवाद में सामाजिक-आन्दोलन-संदर्भ अधिक स्पष्ट है, जहाँ “मुक्ति” का अर्थ सिर्फ आत्म-संतोष नहीं बल्कि संघर्ष-उत्थान है।
गाँधीवाद आमतौर पर उपरोक्त-व्यवस्था-सुधार की बातें करता है — उदाहरण: ग्राम-उद्योग, स्वावलंबन — जबकि गोलेन्द्रवाद अधिक शोषित-वर्ग-सक्रियता की दिशा में है — जहाँ कवि-स्वर सक्रिय है।
गाँधीवाद की भाषा-शैली एवं रूप-विधान अक्सर नैतिक-सदाचार-केन्द्रित है; गोलेन्द्रवाद की भाषा-शैली अधिक प्रत्यक्ष-भावुक-अनुभव-युक्त है — “खेत में उम्मीदें उपजाती हैं ऊख”।
गाँधीवाद में निम्न-वर्गीय जीवन को आदर्श-स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है; गोलेन्द्रवाद में इसे वर्तमान-सामाजिक-वेदनशीलता के रूप में प्रस्तुत किया गया है — यानी आदर्श से होकर नहीं, बल्कि यथार्थ से निकलकर।
*निष्कर्ष*
गोलेन्द्रवाद को गाँधीवाद की “मानव-भावना एवं ग्रामीण-जीवन” की विरासत कह सकते हैं, लेकिन यह उससे आगे बढ़कर शास्त्रीय नैतिकवाद से मुक्त होकर, कविता-सुधार-संघर्ष-भूमि में सक्रिय-सक्रिय हो जाता है। गाँधीवाद जहाँ आदर्श-स्थापन की ओर काम करता है, गोलेन्द्रवाद वहाँ से सामाजिक-सक्रियता-दृष्टि में उतर आता है।
(३) दलितवाद — तुलना
*समानताएँ*
दलितवाद में जात-विरोध, सामाजिक-उपेक्षा, बहुजन-उत्थान की बात की जाती है। गोलेन्द्रवाद में भी यह बात स्पष्ट है — “दक्खिन टोले का आदमी हूँ”, “मुसहरिन माँ” आदि शीर्षक दर्शाते हैं।
दोनों वादों में स्ववाणीकरण (self-voice), स्व-अनुभव का साहित्य, और प्रतिक्रिया-सृजन का महत्व है।
सामाजिक-सुधार-दृष्टि दोनों में है — परंतु उस दृष्टि का रूप भिन्न है।
*विविधताएँ*
दलितवाद विशेष रूप से जाति-शोषण, अस्पृश्यता, समान-अधिकार-चिंतन पर केंद्रित है; गोलेन्द्रवाद में यह एक ‘वर्ग-विरोध’ या ‘बहुजन-चेतना’ का हिस्सा है, लेकिन जाति-सुझाव के अतिरिक्त भाषा-श्रम-अर्थ-अनुभव जैसे आयाम भी प्रमुख हैं।
दलितवाद अक्सर राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन-प्रसंग से जुड़ा हुआ है। गोलेन्द्रवाद में कवि-साहित्य-चिंतन-प्रकाशन-माध्यम प्रमुख है — सामाजिक-आजादी-की दृष्टि से साहित्य-माध्यम का प्रयोग।
दलितवाद में ‘वर्ग-शोषण-विरोध’ एक विशेष रूप से परिभाषित लक्ष्य है; गोलेन्द्रवाद में मुक्ति-दृष्टि थोड़ी व्यापक है — श्रम-किसान-मजदूर तथा मानव-मात्र-का सम्बन्ध, न सिर्फ जाति-सन्दर्भ में।
दलितवाद में शैली-प्रायः गद्य-भाषा (निबंध, आंदोलन-साहित्य) अधिक रही है; गोलेन्द्रवाद में कविता-छंद-रूप प्रमुख है — इसलिए यह कविता-दृष्टि वाला बहुजन-सुधार-विचार कह सकते हैं।
*निष्कर्ष*
गोलेन्द्रवाद को दलितवाद से इस अर्थ में जोड़ सकते हैं कि दोनों “उपेक्षित-वर्ग” की आवाज़ उठाते हैं; लेकिन गोलेन्द्रवाद एक अतिरिक्त कवि-चिंतक-दृष्टि लाता है — जहाँ भाषा, लोक-अनुभव, मित्रता-मुहब्बत-दृष्टि का समावेश है। यह दलित-चिंतन को कवितात्मक-सामाजिक रूप देता है।
(४) नारीवाद — तुलना
*समानताएँ*
नारीवादी वाद में मुख्य रूप से महिलाओं-का अनुभव-भाषा-सशक्तिकरण-विरोध-भेद पर बल होता है; गोलेन्द्रवाद की कविताओं में “दुःख दर्शन”, “तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव”, “किसान”, “आदिवासी”, “दलित”, “स्त्री, औरत और महिला में क्या अंतर है?”, “हमरी भौजी”, “ट्रांसजेंडर संतान का दुःख!” जैसे शीर्षक दिखते हैं।
दोनों वादों में समानुभूति-प्रमुख आवाज़ है — जहां मुख्यधारा की भाषा-संवेदना से बाहर रही आवाज़ें सामने आती हैं।
*विविधताएँ*
नारीवाद मुख्य रूप से लिंग-भेद, महिला-सशक्तिकरण, लैंगिक-अनुभव-विवेचन के इर्द-गिर्द है; गोलेन्द्रवाद में यह एक घटक है, लेकिन समग्र दृष्टि श्रम-मानव-भूत है — जिसमें महिला-अनुभव के साथ किसान-श्रमिक-अनुभव भी सम्मिलित है।
नारीवादी वाद में अक्सर विश्लेषणात्मक-सैद्धांतिक भाषा देखी जाती है (जैसे फेमिनिस्ट थ्योरी, जेंडर स्टडीज) जबकि गोलेन्द्रवाद में कविता-ऊर्जा, लोक-भाषा एवं प्रतीकात्मक अनुभव-भाषा ज्यादा प्रमुख है।
नारीवाद में ‘उपलब्धि-सुधार-मंच’ का महत्व है; गोलेन्द्रवाद में ‘क्रिया-सुधार’ के साथ ‘संवेदना-निर्माण’ का महत्व भी है — अर्थात्, सिर्फ अधिकार-मांगना नहीं बल्कि मित्रता-सहयोग-मानवता-भाषा का पुनर्निर्माण।
*निष्कर्ष*
गोलेन्द्रवाद की दृष्टि में नारीवाद एक महत्वपूर्ण समवर्ती धारा है, लेकिन वह इसे अधिक व्यापक मानव-वर्ग-सुधार-दृष्टि में समाहित करता है — अर्थात्, लिंग-सशक्तिकरण के सन्दर्भ के साथ श्रम-अनुभव, बहुजन-भेद-विरोध, भाषा-संवेदना भी।
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*गोलेन्द्रवाद का महत्व एवं चुनौतियाँ*
*महत्व*
यह वाद इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह नीचे-से-उपर (bottom-up) दृष्टि देता है — जहाँ ग्राम-मजदूर-किसान-भाषा-अनुभव को साहित्य-चिंतन में प्रतिष्ठा मिलती है।
यह साहित्य-चिंतन एवं सामाजिक-सुधार-मंच का एक पुल बनाता है — जहाँ कविता-भाषा और सामाजिक-क्रिया की कड़ी जुड़ती है।
यह बहुजन-चेतना को कवितात्मक-साधना के रूप में पुनर्स्थापित करता है — जहां शोषण-विरोध सिर्फ निबंध-विचार नहीं बल्कि कवितात्मक-अनुभव-निर्माण बन जाता है।
यह संवेदनशील-भाषा, लोक-अनुभव, विविध-भाषावाली-भूमियों को साहित्य-की-भाषा में खोलता है — जिससे साहित्य मुख्यधारा-शिक्षित-भाषा-के बाहर भी पहुँचता है।
वर्तमान-कालीन सामाजिक-वित्तीय-जटिलताओं (जैसे किसान-वंचना, श्रमिक-शोषण, भाषा-विभाजन) को कवितात्मक-दृष्टि से सामने लाता है — इसलिए साहित्य-सामाजिक परिवर्तन-की भूमिका में खड़ा हो जाता है।
*चुनौतियाँ*
वाद का नामकरण (“गोलेन्द्रवाद”) अभी व्यापक-सिद्ध नहीं है — अर्थात् इसे अकादमिक रूप से, समाज-विस्तार के स्तर पर स्वीकार करना बाकी है।
क्योंकि यह कवितात्मक-आधारित है, इसलिए विश्लेषण-भाषा और सैद्धांतिक भाषा में अंतर हो सकता है — जो इसे शोध-परिसरों में चुनौतीपूर्ण बना सकता है।
सामाजिक-सुधार-दृष्टि के बावजूद, कविताओं-लेखों को व्यापक-जन-समूह तक पहुँचाना महत्वपूर्ण होगा — ताकि वाद सिर्फ साहित्य-वर्ग में न रहे बल्कि व्यवहार-परिवर्तन-के उपकरण बने।
वाद की निरंतरता-और-संगठन की कमी हो सकती है — यानी, सिर्फ व्यक्तिगत कवि-चिंतक की सक्रियता पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि एक सामाजिक-सोच-मंच-का विकास होना चाहिए।
अन्य प्रमुख वादों (मार्क्सवाद, नारीवाद, दलितवाद आदि) के साथ संवाद-विकास होना चाहिए — ताकि गोलेन्द्रवाद एक बंद-परिभाषित वादा न बनकर खुला-विकासशील हो सके।
***
*निष्कर्ष*
संक्षिप्त रूप में, गोलेन्द्रवाद एक ऐसा साहित्य-दर्शनीय-चिंतन-प्रवाह है, जो निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है:
वह मानव-मात्र को केंद्र में रखता है, विशेष रूप से श्रमिक-किसान-बहुजन-वर्ग को।
वह मित्रता-मुहब्बत को सामाजिक-साधन मानता है — सिर्फ भावनात्मक नहीं, बल्कि निर्माण-उन्मुख।
वह श्रम-अनुभव, भाषा-अनुभव, मिट्टी-अनुभव को कविता-चिंतन की भाषा में लाता है।
वह मुक्ति-दृष्टि रखता है — व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों रूप में।
वह सहज-लोक-भाषा में सक्रिय है — ताकि साहित्य मुख्यधारा-भाषा-के बाहर भी जन-सम्बद्ध हो सके।
वह अन्य वादों (मार्क्सवाद, गाँधीवाद, दलितवाद, नारीवाद) से संवाद करता है, उनसे मिलता-जुलता है, लेकिन अपनी विशिष्टता रखता है — “कविता-अनुभव-भावना-सुधार” का समन्वित रूप।
यदि हम भविष्य-परिप्रेक्ष्य में देखें, तो गोलेन्द्रवाद का विकास इस बात पर निर्भर करेगा कि कितनी संख्या में कवियों-चिंतकों, पाठकों-सामाजिक-संगठनों ने इसे स्वीकार किया; कितना यह जन-भाषा-साहित्य-मंच में सक्रिय हुआ; कितना इसने समाज-सुधार-क्रिया को प्रेरित किया।
(दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिये अनमोल ख़ज़ाना)
Friday, October 31, 2025
गोलेन्द्रवाद (Golendrism) क्या है?
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