कायफल किसान के सर्वस्व का प्रतीक है : आर. डी. आनंद
कविता में कर्षित किसान शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है ''उत्पीड़ित किसान''। वैसे इस कविता को समझने के लिए हमें "किसान'' और "मजदूर" की परिभाषा को संज्ञान में ले लेना चाहिए। किसान उन्हें कहा जाता है, जो खेती का काम करते हैं। इन्हें कृषक और खेतिहर के नाम से भी जाना जाता है। ये बाकी सभी लोगो के लिए खाद्य सामग्री का उत्पादन करते है। इसमें फसलों को उगाना, बागों में पौधे लगाना, पशुओं की देखभाल कर उन्हें बढ़ाना भी शामिल है। कोई भी किसान या तो खेत का मालिक हो सकता है या उस कृषि भूमि के मालिक द्वारा काम पर रखा गया मजदूर हो सकता है। अच्छी अर्थव्यवस्था वाले जगहों में किसान ही खेत का मालिक होता है और उसमें काम करने वाले उसके कर्मचारी या मजदूर होते हैं। हालांकि, इससे पहले तक केवल वही किसान होता था, जो खेत में फसल उगाता था।
कोई भी ऐसा व्यक्ति जो अपनी श्रम शक्ति को बेचकर रोजगार प्राप्त करके अपना जीवन यापन करता है तो वह एक मजदूर है। वैसे हमारे देश में औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947) की परिभाषा के अनुसार यह फैसला किया जाता है कि कौन मजदूर है। औद्योगिक विवाद अधिनियम के दफा 2 (एस) में मजदूर की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है: “मजदूर (प्रशिक्षु समेत) कोई भी ऐसा व्यक्ति है जो मजदूरी या वेतन के बदले, किसी उद्योग में शारीरिक, अकुशल, कुशल, तकनीकी, कार्यकारी, क्लर्क या सुपरवाइज़र का काम करता हो, चाहे काम की शर्तें स्पष्ट या अन्तर्निहित हों, वह मजदूर है।"
इस बात से स्पष्ट होता है कि एक मजदूर से फसल रोपने का भी काम लिया जा सकता है लेकिन मजदूर का काम सिर्फ फसल रोपना नहीं होता है जबकि किसान का कार्य खेती में सभी कार्यों को करना होता है। किसान मजबूरी में मजदूरी भी करता है लेकिन किसान का कार्य मजदूरी करना नहीं है बल्कि उसके मुख्य कार्यों में से फसल का रोपना भी आता है। यहाँ कविता में कवि प्रताड़ित किसान की बात कर रहा है। प्रताड़ित किसान यदि अन्य मजदूर के खेत में रोपाई नहीं करने जाएगा तो अपने खेत की रोपाई तो करेगा ही। यहाँ किसान और मजदूर के बुनियादी कार्य स्वरूप को लेकर फसल रोपाई पर आलोचना निर्थक होगा।
धूप-वर्षा में गाँठ भर पानी में किसान निहुरे-निहुरे धान की रोपाई करता है। खेत में जोंक उसका खून सूचती है। यहाँ जोंक वास्तविक परेशानी के अर्थ में भी है और शासन, प्रशासन और धन्नासेठों के पूँजीवादी रवैये के रूप में भी है जो किसान का सिर्फ फायदा उठाते हैं और मज़ाक बनाते हैं। टिड्डे भी उसकी परेशानी के सबब भी हैं और बाह्य विसंगतियों के प्रतुरूप भी हैं। काले कौए भी लुटेरों के प्रतीक हैं। इस तरह कवि की अनुभूति की प्रसंशा करना न सिर्फ आलोचक की जिम्मेदारी है बल्कि मजबूरी है।
अंत में, कवि अपनी फसल को "कायफल" की संज्ञा देता है। "कायफल" का पेड़ उत्तर प्रदेश, पंजाब, आसाम और हिमालय के गर्म जगहों में बहुत पाए जाते हैं। इसके पेड़ 10 से 15 फुट ऊंचे होते हैं। कायफल के पेड़ की छाल मटमैली भूरी होती है, पत्ते नुकीले व लम्बे होते हैं और इसके फल गोल होते हैं। कायफल की 2 जातियां होती है- काली और सफेद। कायफल के फूल छोटे, लाल, खुशबूदार और गुच्छों में होते हैं और फल एक इंच से भी छोटे, गोल, पकने पर खून के रंग या पीलापन लिए बादामी रंग के होते हैं। फल का स्वाद मीठा व खट्टा होता है। फलों के ऊपर सफेद रंग का आवरण चढ़ा रहता है जो भूरे व काले धब्बे से युक्त होते हैं। फलों में झुर्रिदार बीज होते हैं जो फालसे की तरह स्वादिष्ट होते हैं। इसकी छाल से रस्सियाँ बनाई जाती हैं। औषधियों के लिए लाल कायफल अधिक उपयोगी होता है। पेड़ की छाल को भी कायफल कहते है और यह भी औषधियों के रूप में प्रयोग की जाती है।
कायफल का रस स्वाद में कडुवा, तीखा व कषैला होता है। इसकी प्रकृति गर्म होती है। इसका फल पकने के बाद कडुवा हो जाता है। कायफल वात व कफ से उत्पन्न रोगों को शांत करता है और वात के कारण उत्पन्न दर्द को खत्म करता है। इसका उपयोग सिर दर्द, सर्दी-जुकाम, मूर्च्छा (बेहोशी) एवं मिर्गी आदि के लिए किया जाता है। यह सांस रोग व खांसी में फायदेमंद है। यह नपुंसकता को मिटाता है। इसके फूलों से निकाले गए तेल भी गर्म व रूखा होता है। इसके तेल से लकवा की बीमारी में मालिश करने से फायदा होता है। नपुंसकता में इस तेल को लिंग पर मलने से नपुंसकता दूर होती है। यह सिर दर्द को दूर करता है और नाक में इसके तेल को टपकाने से नाक से खून आना बंद होता है।
कायफल का रासायनिक तत्त्वों का विश्लेषण करने पर पता चला है कि कायफल की छाल में 32 प्रतिशत टैनिन और मिरिसाइट्रिन नामक ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। कायफल उत्तेजक, संकोचक, कृमिनाशक, छाती में जमे हुए कफ को निकालने वाला, हृदय रोग में गुणकारी और अतिसार दूर करने वाला होता है।
किसान की फसल, जो हरे पेड़ पर लटका हुआ है, एक प्रतीक है। वह फसल कच्चे और खट्टे कायफल की तरह है। वह फसल ही किसान का सब कुछ है लेकिन वह सिवान के हरे पेड़ पर लटका है अर्थात उस पर भी उसका अधिकार नहीं है बल्कि वह किसी और के अधीन है। उस फसल को भी वह धन्नासेठों के लिए शहर में भेजने को मजबूर है।
शुभकामनाएँ!
आर डी आनंद
14.07.2020
कवि : गोलेन्द्र पटेल
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